रविवार, 25 अक्तूबर 2020

कन्या पूजन अनुष्ठान

 कन्या पूजन 

नवरात्रि पर्व में माँ के विभिन्न रूपों की पूजा - अर्चना की जाती है । पण्डाल और घरों में भी कलश - स्थापना और दुर्गा - सप्तशती के पाठ की धूम के साथ ही कन्या पूजन भी किया जाता है । कन्या पूजन के समय मुझे दो बातें कचोटती हैं ... पहली तो यह कि अन्न का अपव्यय और दूसरी पूजन का औचित्य ।


कन्या पूजन के लिये बुलाये जाने वाले बच्चों को उनके अपने घर से भी कुछ न कुछ खिला कर ही भेजते हैं और  जिन घरों में उनका निमंत्रण रहता है ,वहाँ बच्चे सिर्फ चख ही पाते हैं । बल्कि जिन घरों में वो बाद में पहुँचते हैं ,वहाँ तो वो खाने की चीजों को हाथ तक नहीं लगाते हैं । फिर सब जगह से प्रसाद के नाम पर लगाई गई थाली पैक कर के बच्चों के घर पहुँचा दी जाती है । उन घरों से वो पूरा का पूरा भोजन दूसरी पैकिंग में सहायिकाओं को दे दिया जाता है या फिर सड़क पर पशुओं के खाने के लिये डाल दिया जाता है ।


आज के समय मे बहुत सी परम्पराओं ने नया कलेवर अपना लिया है । अब कन्या - पूजन की इस परम्परा को भी थोड़ा सा लचीला करना चाहिए । मैं कन्या - पूजन को नहीं मना कर रही हूँ ,सिर्फ उसके प्रचलित रूप के परिष्कार की बात कर रही हूँ । कन्या - पूजन के लिये सामान्य जरूरतमंद घरों से बच्चों को बुलाना चाहिए । उनको सम्मान और स्नेह सहित भोजन कराने के साथ उनकी जरूरत का कोई सामान उपहार में देना चाहिए । अधिकतर लोग माँ की छोटी - छोटी सी पतलीवाली चुन्नी देते हैं । उनके घर से निकलते ही ,वो चुन्नी कहाँ चली गयी किसी को ध्यान ही नहीं रहता । चुन्नी देने के पीछे सिर ढँक कर सम्मान देने की भावना रहती है ,परन्तु यही काम रुमाल या छोटी / बड़ी तौलिया से भी हो जायेगा । सबसे बड़ी बात कि बच्चे उसको सम्हाल कर घर भी ले जायेंगे ।

प्रसाद भी नाना प्रकार के बनाये जाते हैं ,जिनको बच्चे पूरा खा भी नहीं पाते और खिलानेवाले उनके पीछे पड़े रहते हैं कि खत्म करो । इससे अच्छा होगा यदि हम कोई भी एक या दो स्वादिष्ट वस्तु बना कर खिलाएं और अपनी सामर्थ्य के अनुसार अनाज उनको घर ले जाने के लिये दें । ऐसा करने से अधिक नहीं ,तब भी एक दिन और वह परिवार ताजा खाना बना कर खा भी सकेगा ।


उपहार में भी जो सामान दें उसकी उपयोगिता अवश्य देखे । प्रयास कीजिये कि ऐसा समान बिल्कुल न दें जो दिखने में बड़ा लग रहा हो परन्तु उनके लिये बेकार हो । कुछ ऐसे फल भी दे सकतें हैं ,जो जल्दी खराब नहीं होते हों । 


दूसरा प्रश्न औचित्य का है ... मात्र एक दिन का पूजन और शेष दिन तिरस्कार ... बल्कि तिरस्कार से भी एक कदम बढ़ कर अपमान या उनके अस्तित्व को ही नकारने की बात कहूँगी । अपमान शारीरिक ,मानसिक, सामाजिक प्रत्येक स्तर पर होता है । पूजन के समय माता की चुनरी ओढ़ाते हाथ ही ,बाद में आँचल खींचने को मचल उठते हैं । पहले से स्थितियाँ कुछ तो बदली दिख रही हैं ,परन्तु वास्तविकता में ऐसा है ही नहीं । बस पहले उनकी स्थिति घरों के अहाते में भी दिख जाती थी ,परन्तु अब बाहर से देखने में मन्द मलयानिल के झोंके सा अनुभव होता है । जितना भी सबके अनुभवों को सुनती हूँ मुझको तो यही लगता है कि फ़टी - पुरानी जीर्ण सी किताब पर रंगीन कवर चढ़ा कर सेलोफिन चढ़ा दिया गया है कि अन्दर की सीली वस्तुस्थिति किसी को दिखे ही नहीं ।


कन्या - पूजन का सबसे सार्थक स्वरूप वही होगा जब उनका जीवन सँवर सके । निम्न आयवर्ग के बच्चों के स्कूल की फीस बहुत कम होती है ,तब भी उनकी प्राथमिकतायें फीस भरने से रोक देती हैं । ऐसे एक भी बच्चे की फीस का दायित्व ,यदि हम उठा लें तब उस बच्चे के साथ ही उनके परिवार का भविष्य भी सँवर जायेगा ।इस कार्य के लिये आपको कहीं जाना भी नहीं पड़ेगा ,आपके या आपके घर के आसपास काम करनेवाले सहायकों के बच्चों की पढ़ाई का दायित्व ले सकते हैं ।


यदि हम इन सब में से कोई भी काम नहीं कर सकते तब भी सिर्फ एक काम अवश्य करना चाहिए कि जब भी किसी भी उम्र अथवा परिवेश के बच्चे को किसी भी गलत परिस्थितियों में पाएं ,तब उसकी ढाल बन जायें । जब बच्चों के साथ कुछ गलत होने की संभावना बचेगी ही नहीं ,तभी स्वस्थ और संतुलित परिवेश में बच्चों का सर्वांगीण विकास होगा और एक अच्छे समाज का निर्माण स्वतः ही होने लगेगा । 


अन्त में मैं सिर्फ यही कहूँगी कि परम्पराओं का पालन अवश्य करें ,बस उस मे तात्कालिक परिवेश की प्राथमिकताओं का समावेश अवश्य कर लें ,क्योंकि ईश्वर तो सिर्फ उस भावना को देखते हैं जो हमारे अन्तःस्थल में बसी रहती है .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

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