लघुकथा : अवसर
खिड़की से झाँकती थकी सी आँखें कितनी विवशता से भरी ,दिल की नमी से पलकों को सींच रहीं थीं । सब तरफ से बन्द उम्मीदों के दरवाज़े ,और मासूम निगाहों की झलकती भूख ... वह समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे इन की क्षुधा शांत करे ।
नन्हे परिंदों को देखते - देखते ही ,खिड़की की दरारों से झाँकती नन्ही कोंपल पर उसकी निगाहें अटकी रह गईं । जैसे एक नई ऊर्जा मिल गयी हो ।
हाँ ! वह किसी के सम्मुख हथेली तो नहीं पसार सकती पर उनकी मुट्ठी जरूर बाँध लेगी । वह घर मे रखे कपड़ों को धोने लगी मास्क बनाने के लिये ।
सच आपदा अवसर है अपनी सामर्थ्य को जानने का ,न कि विवश हो कर बिसूरते रहने का ।
.... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
सुन्दर लघुकथा।
जवाब देंहटाएंआपदा में हमारी बुद्धि प्रखर हो उठती है
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति