लघुकथा : परिवर्तन
"अरे ... ये क्या बहू तुम चाय पी रही हो ... और तुमने ये बिंदी ,चूड़ी उतार रखी है । पता नहीं ये आजकल की लड़कियाँ अपने मायके में क्या देखती और सीखती हैं ।तुम्हारे मायके में जो भी होता हो अब एक बात ध्यान में रख लो अच्छे से तुमको यहाँ की परम्पराओं का पालन करना ही होगा ... " अनवरत बोलती सासू माँ की निगाह बहू के पैरों पर पड़ गयी और जैसे ज्वालामुखी फट पड़ा ... चाय का कप फेंकते हुए चीख पड़ीं ,"हद्द कर दी बहू तुमने तुमने बिछुये भी नहीं पहने हैं ... चाहती क्या हो ... अपने ही पति का अपशगुन क्यों कर रही हो ..."
अन्विता के सब्र का बाँध जैसे टूट गया ... वो अपने संस्कारों से बंधी हाथ जोड़ कर बोल पड़ी ,"माँ मेरी तबियत ठीक नहीं है और मुझे दवा खाना है इसलिए मैंने चाय बिस्किट लिया है । "
सासू माँ ,"तुम्हारी तबियत हमारी परम्पराओं से बढ़ कर नहीं है ।"
अन्विता ,"माँ समय के अनुसार परम्पराओं को भी बदला जाता है । मुझे किसी श्रृंगार अथवा परम्परा का पालन करने में ऐतराज नहीं ,पर सिर्फ उनका ही विरोध करती हूँ जो व्यवहारिक हो और दिक्कत का कारण होती हैं। मेरे पैरों की उंगलियों में चोट लगी है जो बिछुये से दब कर और भी बढ़ती जा रही है । वैसे भी अगर परम्पराओं को समयानुसार न बदलते और सती प्रथा जैसी कुप्रथा को न बदलते तब पापा की मृत्यु के बाद आपको भी सती होना पड़ता ,जबकि आप तो तमाम परम्पराओं का बखूबी पालन करती थीं बस इसीलिए ... "
... निवेदिता
"अरे ... ये क्या बहू तुम चाय पी रही हो ... और तुमने ये बिंदी ,चूड़ी उतार रखी है । पता नहीं ये आजकल की लड़कियाँ अपने मायके में क्या देखती और सीखती हैं ।तुम्हारे मायके में जो भी होता हो अब एक बात ध्यान में रख लो अच्छे से तुमको यहाँ की परम्पराओं का पालन करना ही होगा ... " अनवरत बोलती सासू माँ की निगाह बहू के पैरों पर पड़ गयी और जैसे ज्वालामुखी फट पड़ा ... चाय का कप फेंकते हुए चीख पड़ीं ,"हद्द कर दी बहू तुमने तुमने बिछुये भी नहीं पहने हैं ... चाहती क्या हो ... अपने ही पति का अपशगुन क्यों कर रही हो ..."
अन्विता के सब्र का बाँध जैसे टूट गया ... वो अपने संस्कारों से बंधी हाथ जोड़ कर बोल पड़ी ,"माँ मेरी तबियत ठीक नहीं है और मुझे दवा खाना है इसलिए मैंने चाय बिस्किट लिया है । "
सासू माँ ,"तुम्हारी तबियत हमारी परम्पराओं से बढ़ कर नहीं है ।"
अन्विता ,"माँ समय के अनुसार परम्पराओं को भी बदला जाता है । मुझे किसी श्रृंगार अथवा परम्परा का पालन करने में ऐतराज नहीं ,पर सिर्फ उनका ही विरोध करती हूँ जो व्यवहारिक हो और दिक्कत का कारण होती हैं। मेरे पैरों की उंगलियों में चोट लगी है जो बिछुये से दब कर और भी बढ़ती जा रही है । वैसे भी अगर परम्पराओं को समयानुसार न बदलते और सती प्रथा जैसी कुप्रथा को न बदलते तब पापा की मृत्यु के बाद आपको भी सती होना पड़ता ,जबकि आप तो तमाम परम्पराओं का बखूबी पालन करती थीं बस इसीलिए ... "
... निवेदिता
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (23-04-2019) को "झरोखा" (चर्चा अंक-3314) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
पृथ्वी दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 22/04/2019 की बुलेटिन, " टूथ ब्रश की रिटायरमेंट - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंअच्छी लघुकथा .
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअच्छा है!
जवाब देंहटाएं