मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

श्रुतिकीर्ति : एक अलग मनःस्थिति


चमकते सितारों को देख देख
आँख मेरी भी डबडबाई
हाँ ! हूँ मैं भी इक सितारा
चमकता नहीं बस टिमटिमाता हूँ !
प्रिय पात्रों को ध्रुवमण्डल सा
क्या खूब सजाया तुमने
मुझसे तारे रह गए अनदेखे
आसमान में अंधियारा सा सितारा हूँ !
कहीं अनुसरण मान दिलाता है
कहीं कर्तव्य अलग दिखलाता है
सन्यासी भाव अनुशंसा पाता है
नींव की ईंट सी चुप्पी क्यों नहीं सुन पाते हो !
तुला के दोनों पलड़े हो तुम
पलड़ों को साधे डोर की धार हो
हाँ ! इक सीधी दीवाल हो तुम
मिस्त्री की कन्नी की ठोकर से बेजार हो !
रुष्ट नहीं तो तुष्ट भी नहीं हूँ
श्रुत नही तो कीर्ति भी नहीं हूँ
इतनी बेबस इतनी लाचार नहीं हूँ
क्योंकि मैं ... हाँ ! मैं श्रुतिकीर्ति हूँ !
                                       ..... निवेदिता

1 टिप्पणी: