शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

सलामती क़ी चाहत


कुछ शब्द
कुछ भाव
अक्सर
आ-आ कर
कानों में
सरगोशियाँ
सी कर
यादों को
वादों को
थपथपा कर
सहला जाते हैं
कभी दिल
कभी दिमाग
कहीं वादें
कहीं इरादे
कभी यादों में
समेट कर
सहेजे रखने का
डगमगाता दावा
कहीं यादों संग
चाहत बनाये रखने का
पुरजोर इज़हार
क्यों ?????
याद तो
दुश्मन ने भी
किया ही होगा
सलामती क़ी
चाहत तो
बस एक तुमने ही की होगी ........
                            -निवेदिता

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

क्या कहूँ ......



स्नेह प्यार या कहूँ
छलकता बरसता दुलार
नदिया की लहरों सी 
मन बहकाती उमंगें हैं 

लाल हो या गुलाबी 
बड़ी हो या फिर छोटी 
ये बिंदिया तो बस 
तुम्हारी साँसों को ही 
निरख-निरख कर 
बस यूँ ही निखरती हैं
सम्मोहक बिंदु बन
तुमको आभासित करती
मन प्रभासित कर जाती है

ये अनबोलती
खामोश निगहबान सी
मन की गिरह खोलती
आँखें निगाह बचा
लचक सी जाती हैं 
अनदेखा सा ही कर
निगाहों का बाँध बनती है
काजल की कजरारी धार ......
                        -निवेदिता


सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

भोले बाबा" का परिवार विरोधाभासों का भंडार ......


"


         शंकर जी अपने गले में सर्प धारण करते हैं।उनका वाहन वॄषभ अर्थात नंदी है।उनके बेटे कार्तिकेय का
 वाहन मोर है ,जो सर्प का शत्रु है और उसे खाता है । माता पार्वती का वाहन सिंह है जो वॄषभ को अपना भोजन बनाता है। गणेश जी का वाहन चूहा है , जिसका शत्रु सर्प है । शंकर जी रुद्र स्वरूप उग्र और संहारक हैं तथा उग्रता का निवास  मस्तिषक में है ,किन्तु शान्ति  की प्रतीक गंगा उनकी जटाओं में विराजमान हैं । उनके कंठ में विष है ,जिससे वो नीलकंठ कहलाये और विष की तीव्रता के शमन के लिये मस्तिष्क में अर्धचंद्र विराजमान है । सर्प तमोगुण का प्रतीक है ,जिसे शंकर जी ने अपने वश में कर रखा है । इसी प्रकार सर्प जैसे क्रूर और हिंसक जीव महाकाल के अधीन हैं ।
        शंकर जी  के गले में मुंडमाल इस तथ्य का प्रतीक है कि   उन्होने मॄत्यु को गले लगा रखा है । इस से यह भी प्रमाणित होता है कि  जो जन्म लेता है ,वह मरता अवश्य है । शंकर जी द्वारा हाथी और सिंह के चर्म को धारण करने की कल्पना की गयी है। हाथी अभिमान और सिंह हिन्सा का प्रतीक है ।शिव जी ने इन दोनों को धारण कर रखा है । शिव जी अपने शरीर पर श्मशान की भस्म धारण करते हैं ,जो जगत की निस्सारता का बोध कराती है ,अर्थात शरीर की नश्वरता का बोध कराती है । अतः इतने विरोधाभसों में जो सन्तुलन बनाये रखकर शिव समान रहता हैं वही अनुकरणीय है ।
                                                               -निवेदिता
   (ये मेरे ब्लॉग के प्रारम्भिक चरण का आलेख है ,जिस पर सम्भवत: किसी की निगाह नही पड़ी होगी | आज इसको रिपोस्ट कर रही हूँ ......)

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

विदुर

       
        शांतनु के सत्यवती से विवाह के बाद हस्तिनापुर के इतहास में क्रमिक पतन होने लगा था । तथाकथित युगपुरुष "भीष्म" ने प्रतिज्ञाबद्ध हो आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन किया । शांतनु-सत्यवती के दो पुत्र हुए -चित्रांगद और विचित्रवीर्य । चित्रांगद का देहांत अल्पायु में ही हो गया था । विचित्रवीर्य का विवाह काशीनरेश की दो पुत्रियों - अम्बिका और अम्बालिका - से हुआ । एक युद्ध में विचित्रवीर्य की जब मृत्यु हुई वह नि:सन्तान था । सत्यवती ने भीष्म से अम्बा और अम्बालिका से नियोग के लिए कहा ,परन्तु भीष्म ने उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया । तब सत्यवती ने अपने और ऋषि पराशर के पुत्र व्यास को इस कार्य के लिए चुना ।अम्बिका और अम्बालिका की खामोश असहमति और अरुचि के फलस्वरूप दृष्टिहीन धृतराष्ट्र और रोगग्रसित पाण्डु का जन्म हुआ । दुविधाग्रस्त होने पर रानियों ने अपनी दासी "विनता" को व्यास के पास भेजा । विनता के संतुलित मन:स्थिति के फलस्वरूप संतुलितामना विदुर का जन्म हुआ ।
         विदुर ने राजपुत्र न होते हुए भी राजकुल की गरिमा का पालन ताउम्र किया । अपने सात्विक आचरण का परिचय देते हुए राजमहल की सुख-सुविधाओं का दासत्व स्वीकार नहीं किया । ऋषि-मुनि जिस तपश्चर्या के लिए वन अथवा पर्वत की कन्दराओं में जाते थे ,उसको विदुर ने राजसी वैभव से अविचलित रहते हुए महल में ही किया । विदुर का विवाह राजा देवक की दासीपुत्री "सुलभा" से हुआ । देवक कृष्ण के नाना थे ,इस सम्बन्ध से विदुर कृष्ण के मौसा थे । सुलभा भी विदुर के समान ही संतुलित और सात्विक विचारों वाली थी । 
        विदुर हस्तिनापुर की राज्यसभा में विशिष्ट महत्व रखते थे । धृतराष्ट्र विदुर के विचारों के बहुत मान देते थे । सम्भवत: इसीलिये दर्योधन के पीड़ा देते आचरण को विदुर ने सहा और हस्तिनापुर के प्रति अपनी निष्ठा को  बनाये रखा । एक बार दुर्योधन से विवाद बढ़ जाने पर ,धृतराष्ट्र ने विदुर को हस्तिनापुर से निष्कासित कर दिया था परन्तु ये आभास पाते ही कि विदुर के मिल जाने से पाण्डवों की शक्ति और भी संतुलित और समृद्ध हो जायेगी , विदुर को हस्तिनापुर वापस बुला लिया ।
       कौरवों की हठधर्मिता और अविवेकी आचरण को विदुर नापसंद करते थे और पाण्डवों के सदाचरण के प्रति अनुराग रखते थे । इस पसंद-नापसंद के दोराहे पर भी विदुर हस्तिनापुर के प्रति निष्ठावान बने रहे । दुर्योधन की कुटिलता से परिपूर्ण चालों से पाण्डवों को बचाने के लिये सतत प्रयासरत रहते हुए उसको सुधारना भी चाहा । इस प्रकार राज्य के प्रति अपनी निष्ठा और गलत का विरोध करने में संतुलन बनाये रखा ।      

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

सप्तपदी ........

       बचपन से ही "सात" अंक की महिमा सुनती आयी हूँ ..... "सात शैतानों की गुरु" तो कभी "सात जन्म याद दिलाने" की धमकी !ये तो अंतहीन श्रृंखला थी ।जब स्कूल पहुंचें तब भी इस अंक "सात" ने पीछा नहीं छोड़ा .... कभी सप्तऋषियों के नाम याद किया तो कभी सात तल और सात लोक याद किये ....
       सात लोक : भूलोक ,भुवर्लोक ,स्वर्लोक ,महर्लोक ,जनलोक ,तपलोक ,सत्यलोक 
       सात तल  : तल ,अतल ,तितल ,सुतल ,तलातल ,महातल ,सतातल
       सप्तऋषि  : अत्री ,वशिष्ठ ,कश्यप ,गौतम ,भारद्वाज ,विश्वामित्र ,जमदग्नि 
      इस प्रक्रिया में अक्सर बाल-मन ये सोचता कि इस गणना को सात से आगे क्यों नहीं ले जाया गया ,परन्तु इस जिज्ञासा का कहीं भी समाधान नहीं मिला । ऐसी अनेक जिज्ञासाओं के समाधान तलाशता वयस्क होता मन फिर से एक प्रश्न में उलझा विवाह के समय फेरे और कसमें भी सात ही क्यों होती हैं ,कम अथवा अधिक क्यों नहीं ? 
       इन प्रश्नों के चक्रव्यूह को अनदेखा करता मन अपने विवाह में भी अधिकतर लोगों की तरह रस्मों को निभाने में व्यस्त हो इन सात वचनों पर ध्यान न दे विवाह-बंधन में बंध गया ...:) अब इतने वर्षों के बाद सोचा इन कसमों और रस्मों को ... सप्तपदी को समझा जाए  .....
       हर फेरा एक तरह से एक नई शुरुआत है नये जीवन के प्रति ,एक नई प्रतिबद्धता है अपनी जिजिवषा के प्रति ! पहला फेरा हमारा प्रण होता है एक-दूसरे का सम्मान करने का । दूसरा फेरा लेने पर प्रण लेते हैं एक-दूसरे के मानसिक सम्बल को बढाने का। तीसरा फेरा एक-दूसरे के साथ धैर्यपूर्ण व्यवहार का संकल्प दिलाता है । चौथा फेरा निष्ठावान रहने का और पाँचवा फेरा साथ निभाने को संकल्पित करता है । छठा फेरा सम्वाद्पूर्ण जीवन यात्रा को समर्पित होता है । सातवाँ फेरा सुखद साहचर्य को प्रेरित करता है । इन फेरों का ये अर्थ मेरी अपनी सोच ही है क्योंकि इसके द्वारा इस "सात" के अंक की महत्ता को स्वीकृति मन दे ही देता है ।इन सात फेरों से ही प्रेरित हो कर सर्वथा अनजान भी एकमना हो जाते हैं ।
        अब आप सब ये सोच रहें होंगे कि आज इस सप्तपदी की याद क्यों आ गयी ! अरे भई ये कोई गूढ़ रहस्य नहीं है ... कल अर्थात तीन फरवरी को हमारे विवाह की वर्षगाँठ थी ...) देखिये अब एक नया प्रश्न आपको फिर परेशान कर रहा होगा कि ये पोस्ट एक दिन देर से क्यों ! चलिए आपकी सहायता भी हम ही कर देते हैं .... कभी शादी में गाये जाने वाले संस्कार-गीत सुने ही होंगे .... एक गीत बहुत सुना होगा ...."बड़ी दूर से आया बन्ना पर बन्नी न बोले ......( बीच में और भी बहुत सारी पंक्तियाँ हैं मै सीधे अंतिम पर पहुँच रही हूँ )..... जरा हो जाने दो शादी फिर बन्नी ही बोले ".....इसलिए बन्धुवर शादी तो कल हो गयी अब तो .......:)
            चलिए एक गीत भी सुन लीजिये .......
                                                                                                                        - निवेदिता