शनिवार, 14 सितंबर 2024

लघुकथा : गरिमा

 लघुकथा : गरिमा

माँ शिरोरेखा अपने अक्षर बच्चों को निहारती प्रमुदित हो रही थी, अनायास ही उसका ध्यान गया कि कुछ बच्चे खुशी से थिरक रहे हैं, वहीं उनके जुड़वाँ मन म्लान किये सिमटे हैं ।

"क्या हुआ बच्चों तुम इतने उदास क्यों हो रहे हो ... अपने बाकी के भाई बहनों के साथ खेलो न ... "

किसी भी उदास अक्षर से कोई भी प्रतिक्रिया न पाकर, उसने फिर से उन अक्षरों को अपने आँचल में समेटना चाहा ,तब एक अक्षर सिसक पड़ा, "माँ ! हमारे बाकी के साथियों को उनकी गरिमा को समझने और प्यार करने वाली  वाणी का साथ मिला है इसलिये वो कभी भी अपशब्दों की कटुता को नहीं अनुभव कर पाते हैं और मासूम हैं।"

तभी 'म' अक्षर बोल पड़ा," देखों न माँ ! मुझसे ही तो कई शब्द बनते हैं, अब जैसे आप को ही पुकारते हैं, परन्तु हम जहाँ हैं वो इसके आगे के शब्दों को विकृत कर माँ के प्रति गाली बोलते हैं। हमारा मन चीत्कार कर उठता है, परन्तु कर कुछ नहीं पाते।"

'भ' भी बोल पड़ा ,"हाँ माँ ! देखो न मुझसे ही  भगवान, भगवती, भार्या, भगिनी जैसे विश्वास बाँधते शब्द बनते हैं, परन्तु जहाँ मैं हुँ उसने मुझे सिर्फ गाली बना रखा है।"

शिरोरेखा सिसक पड़ी,"हाँ ! बच्चों भाषा का अनुशासन सब भूल चले हैं।"

एक पल बाद ही सारे शब्द और शिरोरेखा आत्मविश्वास से भर उठे,"जो हमारी गरिमा का प्यार से निर्वहन नहीं करेगा, उसके विचार कभी भी कालजयी नहीं होंगे और समय की लहरों में खो जाएंगे ।"

निवेदिता 'निवी'

लखनऊ


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