लघुकथा : अभिमान
अनघा पार्क में पेड़ों के झुरमुट में शिथिल सी बैठी थी । बहुत से बच्चे खेल में मग्न उसके आसपास से पंछियों सा कलरव करते एक झूले से दूसरे झूले पर , तो कभी स्लाइड से सी सॉ पर फुदक रहे थे । कभीकभार कुछ युवा भी दौड़ती सी गति से जॉगिंग करते दिख जाते थे ।पर वो दुनिया से वीतरागी सी पतझर जैसी ,अपने ही स्थान पर शिथिल बैठी थी ।
अन्विता बहुत देर से उनको निहार रही थी ,परन्तु उसको अनघा के इस रूप का कारण समझ ही नहीं आया । अंततः वो उठ कर अनघा के पास ही जा बैठी ,"आप शायद मुझे नहीं जानती होंगी और मैं भी आपको आपके नाम से नहीं जानती हूँ ,परन्तु आपको पहचानती जरूर हूँ । मैं इस पार्क में अक्सर टहलने आती हूँ और जब नहीं आ पाती हूँ , तब भी अपने घर की बालकनी से आपको यूँ ही गुमसुम बैठी देखती रहती हूँ । आपको कोई समस्या हो तो मुझे बताइये ,शायद मैं कुछ सहायता कर सकूँ ।"
अनघा थोड़ी देर उसको निहारती रही ,फिर वो बोल पड़ीं ,"दरअसल मैं अनिर्णय में थी कि एक अपरिचित से समस्या बताना चाहिए भी कि नहीं । फिर लगा मेरी वीरानी मेरी गलती का परिणाम है । खुद गलती कर के सीखने में गलती को सुधारने का समय बीत जाता है । इसलिए दूसरों के अनुभव से भी सीखना चाहिए ।"
"विवाह के कुछ वर्षों बाद जब बच्चे नहीं हुए और सबकी तीखी बातों का निशाना मुझे बनाया जाने लगा , तब हमने डॉक्टर को दिखाया । विभिन्न टेस्ट करवाने के बाद पता चला कि मेरे पति में कुछ दिक्कत थी ,जबकि मैं सन्तानोत्पत्ति में सक्षम थी । डॉक्टर ने टेस्ट ट्यूब बेबी की सलाह दी परन्तु उसके लिये परिवार के लोग विरुद्ध हो गये कि पता नहीं किस का अंश उनके रजवाड़ों के खानदान में आ जायेगा । उनके परिवार का अभिमान खण्डित हो जाता । हम भी चुप रह गये । अब जीवन के इस सांध्यकाल में ,पति की मृत्यु के बाद मैं एकदम अकेली हूँ । "
"सच कहूँ तो उनके परिवार का अभिमान तो बच गया पर मैं टूट गयी । "
.... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"
अनघा पार्क में पेड़ों के झुरमुट में शिथिल सी बैठी थी । बहुत से बच्चे खेल में मग्न उसके आसपास से पंछियों सा कलरव करते एक झूले से दूसरे झूले पर , तो कभी स्लाइड से सी सॉ पर फुदक रहे थे । कभीकभार कुछ युवा भी दौड़ती सी गति से जॉगिंग करते दिख जाते थे ।पर वो दुनिया से वीतरागी सी पतझर जैसी ,अपने ही स्थान पर शिथिल बैठी थी ।
अन्विता बहुत देर से उनको निहार रही थी ,परन्तु उसको अनघा के इस रूप का कारण समझ ही नहीं आया । अंततः वो उठ कर अनघा के पास ही जा बैठी ,"आप शायद मुझे नहीं जानती होंगी और मैं भी आपको आपके नाम से नहीं जानती हूँ ,परन्तु आपको पहचानती जरूर हूँ । मैं इस पार्क में अक्सर टहलने आती हूँ और जब नहीं आ पाती हूँ , तब भी अपने घर की बालकनी से आपको यूँ ही गुमसुम बैठी देखती रहती हूँ । आपको कोई समस्या हो तो मुझे बताइये ,शायद मैं कुछ सहायता कर सकूँ ।"
अनघा थोड़ी देर उसको निहारती रही ,फिर वो बोल पड़ीं ,"दरअसल मैं अनिर्णय में थी कि एक अपरिचित से समस्या बताना चाहिए भी कि नहीं । फिर लगा मेरी वीरानी मेरी गलती का परिणाम है । खुद गलती कर के सीखने में गलती को सुधारने का समय बीत जाता है । इसलिए दूसरों के अनुभव से भी सीखना चाहिए ।"
"विवाह के कुछ वर्षों बाद जब बच्चे नहीं हुए और सबकी तीखी बातों का निशाना मुझे बनाया जाने लगा , तब हमने डॉक्टर को दिखाया । विभिन्न टेस्ट करवाने के बाद पता चला कि मेरे पति में कुछ दिक्कत थी ,जबकि मैं सन्तानोत्पत्ति में सक्षम थी । डॉक्टर ने टेस्ट ट्यूब बेबी की सलाह दी परन्तु उसके लिये परिवार के लोग विरुद्ध हो गये कि पता नहीं किस का अंश उनके रजवाड़ों के खानदान में आ जायेगा । उनके परिवार का अभिमान खण्डित हो जाता । हम भी चुप रह गये । अब जीवन के इस सांध्यकाल में ,पति की मृत्यु के बाद मैं एकदम अकेली हूँ । "
"सच कहूँ तो उनके परिवार का अभिमान तो बच गया पर मैं टूट गयी । "
.... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"
हार्दिक आभार आदरणीय
जवाब देंहटाएंवाह अद्भुत पर सत्य को कहती लघुकथा।
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