शुक्रवार, 17 मई 2013

तुम्हारी परछाईं ....


सब आजमाते है
जैसे मैं ही हूँ
तुम्हारी परछाईं
सच कहूँ
नहीं बनना मुझे
तुम्हारी परछाईं

कभी कहीं आ गयी 
ज़िन्दगी में तपिश
तुमसे दूर कभी
जा भी न पाऊँगी
अंधियारे पलों में
हाथ कैसे छुडाउंगी !

हाँ !
बना सको तो
बना लो
मद्धिम सी
साँसे अपनी
दोनों साथ ही
चल कर थमेंगे !

बसा सकते हो
बसा लो बस
रूह में अपनी
क्यों ?
अरे जानते नहीं
रूहें साथ रहती हैं
जन्मों तक .......
                    - निवेदिता

शनिवार, 4 मई 2013

वो भीगी - भीगी सी आवाज़ .......


आवाज़  में  भी  इतनी नमी आ सकती है ,और वो भी इतनी कच्ची आवाज़ में ,पहले कभी सोचा नहीं था । इधर कुछ दिनों से ,जब भी बेटे से बात होती है उसकी आवाज़ में एक नामालूम सी नमी रहती है । बस एक माँ का दिल तो बच्चे की अनजान सी धडकन भी सबसे पहले पहचान जाता है ,तो मैं भी थोड़ा सा डर जाती थी कि इस नमी का कारण क्या हो सकता है ! अजनबी सी बदली का एहसास सिहरा जाता था । कल रात भी बात करते हुए एक बार फिर से थाह लेने की कोशिश करते ,जैसे एक सिरा मिल गया और मन को भी सुकून । 

इंजीनियरिंग की पढाई के अंतिम वर्ष की अंतिम परीक्षा की पूर्णता के लम्हे जैसे - जैसे पास आते गये ये नमी भी बढती गयी थी । अब परीक्षा समाप्त हो गयी है और बच्चे वापस अपने - अपने घरों को और अपने अगले गंतव्य को बढ़ चले हैं । सब अपने इन चार वर्षों के साथ में बिठाये हर एक छोटे - बड़े लम्हे को फिर से जीने और कुछ लम्हों को ही सही ,थामे रखने का प्रयास कर रहे हैं । यही उनके दिलों के भारीपन और आवाज़ में आने वाली नमी का कारण है । 

अपने घरों  की सुरक्षित  छाँव  छोड़  कर  मासूम फाख्ताओं   जैसे ये बच्चे , अपने छात्रावास के इस मासूम से एहसास को , जिसमें खट्टे - मीठे न जाने कितने पल गुज़ारे होंगे , बहुत तीव्रता से महसूस कर रहें हैं । शायद उनको ये भी लग रहा होगा कि अब ज़िन्दगी में फिर कब ,कहाँ और किन स्थितियों में फिर कब मिलेंगे ! शायद कुछ से तो अब कभी मिलना संभव भी न हो । 

अब समझ गयी हूँ कि बच्चे अपने दूसरे घर ,जहाँ वो जन्म से नहीं अपितु दोस्तों के मन से जुड़े थे ,के छूटने की पीड़ा और आने वाले ज़िन्दगी की चुनौतियों , दोनों का ही सामना करने के द्वंद की सृजनात्मक प्रक्रिया से गुजर रहे हैं । 

बस यही दुआ है ईश्वर !उनका मार्ग प्रशस्त करे और उनकी बाँह थामे रहे !!!
                                                                                       - निवेदिता 

बुधवार, 1 मई 2013

नेता जो ढूँढन मै चली ............



आजकल कोई भी समाचारपत्र पढ़ने का प्रयास करें अथवा किसी खबरी चैनल देखें ,हर जगह सम्भावित चुनाव और उसके सम्भावित प्रत्याशियों पर ही अटकलें लगाईं जा रही हैं । अब इस चुनावी मौसम की बहती गंगा में अपना भी दायित्वबोध जाग्रत हो गया ,क्या करें मजबूरी जो थी कितना सोया जाए ! 

हमने सोचा हर बार आरोपों की ढेरी नेताओं ,यहाँ मेरी तात्पर्य राजनेताओं से है कृपया किसी भी प्रकार की गलतफ़हमी को बढ़ावा न दिया जाए ,की तरफ बड़ी इज्जत के साथ सरका देते थे ,परन्तु इस बार बस स्वाद बदलने के लिए थोड़े से ज़िम्मेदार बनने का प्रयास कर लिया जाए ! चलिए इस पूरे रहस्य पर से पर्दा हटा देते हैं :) 

हमने सोचा एक चुनावी दल हम भी बना लें जिसमें पढ़े - लिखे आम जन ही सम्मिलित हों ! बेशक बाद में वो आमजन भी ख़ास बन जायेंगे ! 

कोई भी नया और अच्छा काम करना हो तो निगाहें सबसे पहले युवा सोच को ढूँढती हैं ,तो हमने भी सोचा अब आजकल तो बच्चों की लगभग सभी परीक्षाएं समाप्त हो गईं हैं और वो भी अपेक्षाकृत सुकून भरे हुए कुछ नया करने की सोच रहे होंगे । बस इसी ख्याल की उम्मीद से भरपूर युवाओं को तलाशने लगी और "जिन खोजा तिन पाइयां"की तर्ज़ पर जोश से भरे हुए एक समूह पर अपनी खोजी दृष्टि अटक गयी । बड़ी उम्मीदों से भर उनको समझाने का प्रयास शुरू किया ही था कि उन्होंने समझदारी और त्वरित - बुद्धि का परिचय देते हुए पतली गली से खिसकने का प्रयास शुरू किया । पर आज तो हम पर भी राष्ट्र के प्रति प्रेम कुछ ज्यादा ही जोर मार रहा था । हमने उनको पहले तो बहलाने का प्रयास किया पर जब बात नहीं बनी ,तो हमने सोचा कि सीधा रास्ता अपनाते हुए दो टूक पूछ ही लिया जाए । पर वाकई आज के युवा कितना लिहाज करते हैं और सुसंकृत हैं पता चल गया । मेरे हर तरह के सीधे - टेढ़े सवालों के जवाब में उन्होंने कहा कि उन्होंने तो पढाई की है तो उनको कोई काम मिल ही जाएगा और वो उस काम को पूरी ईमानदारी से करते हुए भी राष्ट्र सेवा कर लेंगे पर  अगर इस काम को एक दूसरे नजरिये से किया जाए तो बेरोजगारी की समस्या का भी समाधान हो जाएगा ।   हमारी जिज्ञासा के समाधान में उन्होंने कहा कि नेतागिरी के लिए किसी प्रकार की शैक्षिक योग्यता की जरूरत ही नहीं है ( 


अब सारी आशाओं का केंद्र बना सामने से अपनी ही मस्ती में झूम कर आता हुआ एक मलंग ! बचे हुए मक्खन के साथ हम एकदम वायुवेग से उसकी तरफ लपके कि  कोई और न उसको लपक ले । अब इस बाहुबली को हमने समझाना शुरू किया । तमाम पैंतरे अपनाते हुए नेता बनने के तमाम फायदे बतलाये । पर ये तो कुछ ज्यादा ही समझदार निकला ,बिना एक पल भी गँवाए उसने मेरे प्रस्ताव को ध्वनिमत ,अरे नहीं गुर्राहट से ठुकरा दिया कि जब बिना मेहनत किये ही उसको चुनाव के समय में तमाम सुविधाएं मिल जाती हैं तो वो काहे को खद्दर पहन कर नेतागिरी चमकाये !


अपनी युवा - शक्ति और मलंग से निराश हो कर एक आम से दिखते हुए मानवतन धारी से अनुरोध किया ( अब क्या करते इस महँगाई के दौर में मक्खन खत्म हो गया था न )और यथासंभव उसको पुदीने की झाड़ पर चढ़ाने का प्रयास किया । ये आम इंसान भी बड़ा समझदार निकला ,उसने तो तुरंत ही हाथ जोड़ दिए , "भइये ये नेतागिरी तो किसी ऐसे ही व्यक्ति को सजती है जिसके पास धन बल ,बाहु बल और जिसमें अपनी बातों को समयानुसार बदलने की सामर्थ्य हो । अब एक आम इंसान तो बातों पर ही मरता रहता है , कभी अपनी तो कभी दूसरों की बातें ।"

अब कोई और शख्स तो मुझे समझ में नहीं आ रहा जिसके कंधों का सहारा लेकर अपने चुनावी दल का श्रीगणेश  करूँ ,तो सोचती हूँ अपना पुराना काम ही करती रहूँ ,वही खुद कुछ न कर के भ्रष्टों के हाथों में सत्ता और शक्ति सौंप कर उनमें कमियाँ निकालती रहूँ और अपनी और उनकी गलतियों का खामियाज़ा भरती रहूँ (



            " नेता जो ढूँढन मै चली ,हाय नेता न मिलया कोय 
                       चरित्र बखान जो किया ,हाथ जोड़ भागे सब कोय "
                                                                                   -निवेदिता