बुधवार, 24 दिसंबर 2014

शुक्रिया तुम्हारा

शुक्रिया तुम्हारा 
तुमने तोडे मेरे सपने 
और मैं समझ गयी 
टूटे सपने भी जीवंत होते हैं 

देख कर अनदेखी करती 
ये अधमुंदी सी आंखे 
मत बरसना जब 
बंद होंगी मेरी ये आँखें 

ये शाम बहुत चुप सी है
कोहरे में चेहरा छुपाये
लैम्पपोस्ट बेबस
अंधियारे के शब्द कहाँ बोलते हैं ... निवेदिता 

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

वंचित या वंचना


जानती हूँ  .... आज भी  .... 
तुम खुद को ,अपनी ही नज़रों में 
बहुत बड़ा मान रहे होगे  … 
सोचा होगा  .... तुमने कहा था 
किसी पल  … अपनी जीने के कारण को 
कहा था " ना " .... 
शायद "ना" कहना आसान होता है 
"हाँ" कहने के बाद 
उस "हाँ" को बनाये रखने के लिए 
बनाये रखना पड़ता है 
अपने समस्त आत्मबल को 
और जानते हो न 
आत्मबल होता ही उनके पास है 
जिनके पास आत्मा होती भी है 

अच्छा ये तुम खुद को ही बता लेना 
तुम्हारी इस "ना" ने 
किससे क्या है छीना 
लता को आसमान छूने के लिए 
तने का सहारा चाहिए 
पर ज़रा सोचो तो 
लता भले ही आसमान न छू सके 
अकेले अपने ही कदमों पर न खड़ी हो सके 
पर लता के फूल तो ज़मीन पर भी 
खुल कर खिल जाएंगे 
पर सोचो तो  .... 
वो पेड़ जरूर आसमान को देख रहा होगा 
पर उस लता के फूलों से तो वंचित ही रहेगा

जब भी सपनों के तराजू पर तौल कर देखोगे 
अपना पलड़ा  भारी ही समझोगे 
पर ऐसा है क्या  …. 
तुम्हारे एक बार "नहीं" कहने की 
सज़ा भी तुम्हारे स्वर को ही मिली 
अभिशप्त है वो मेरा नाम न ले सकने को 
तुम्हारी आँखों की तलाश 
दिल का भारीपन 
समय की तराज़ू पर तौल कर देखो 
किसने क्या खोया किससे क्या छूटा  …… निवेदिता !
                                                    

शनिवार, 13 सितंबर 2014

सिरहाना मिल जाये .....



ये मन को भिगोती 
यादों की रिमझिम फुहारे 
इनके धुंधलके से झाँकती 
तुम्हारी यादों की किरण 
अलकों का हिण्डोला सजा 
सुरीले से लम्हों की पींगे 
उनींदी सी पलकों तले 
इन्द्रधनुषी नींद की ओस में 
सो जाना चाहे ....
ब़स सिरहाना मिल जाये 
तुम्हारे हाथों की लकीरों का ..... निवेदिता 

सोमवार, 8 सितंबर 2014

एक अकेला दिल




                                                   भूले से भी कोई जान जाये
                                              दिल में किसी के क्या - क्या छुपा है
                                                     इसके बेनकाब होते ही
                                              न जाने कितने गुमनाम फसाद हो जाते
                                                     शायद इसीलिये खुदा ने
                                              दिल तो बस एक अकेला ही बनाया
                                                     राज़ खुलने से पहले ही
                                              बस उसकी धड़कने रोक देता है ....... निवेदिता !

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

ऐसा भी होता है ……


खामोशियों से सराबोर ये शाम 
दबी सी आहटों के शब्द तलाशती 
डूबते सूरज की रौशन रौशनी को 
कतरा दर कतरा अपने दामन में 
चाँद - तारों सा टाँक सजा लिया 

थके से कदमों में आ गयी 
एक नयी उमंग की चमक 
खिलखिलाहट में दिख गयी है 
शायद अपने घर की पहचान 

सुबह ने शायद अपनी पलकें खोल 
उदासी की बिखरी किरचें समेट लीं 
मासूम से कन्धों ने थाम लिया है
इन्द्रधनुषी सपनों की सौगात  ……… निवेदिता 
                                   

रविवार, 10 अगस्त 2014

सबसे अलग हो तुम ......

सबसे अलग हो तुम 
जानते हो क्यों 
सब देखते हैं 
लबों पर थिरकती हँसीं 
स्वर में बोलते अट्टहास 
पर तुम ....
तुम तो देख लेते हो 
इन सबसे परे 
मेरी आँखों में तैरती नमी ....... निवेदिता 

बुधवार, 23 जुलाई 2014

मेरी आँखें सोना चाहती हैं .......


वो दूर क्षितिज पर 
एक उजला साया सा दिखा 
अचंभित है मन बावरा 
वो दूर उड़ता उजला लम्हा 
रेशा - रेशा बादल है 
या कहीं उठती - गिरती 
समुद्री लहरों की 
नमकीन यादों का 
ज्वार  है छाया 
सहम जाते लड़खड़ाते 
कदम खोजते हैं 
अनजानी राहों की 
धूमिल सी पगडंडी 
वहीं कहीं ममता की छाँव 
झलक दिखला जाती 
अरे ! वो उजला साया तो है 
माँ , बस तुम्हारे ही  
दुलार बरसाते आँचल का साया 
बहुत दिनों से जागी मेरी आँखें 
अब तो बस थक गयीं हैं 
सोना चाहती हैं 
कभी न खुलने वाली 
नींद में  …… 
काश ! कहीं मिल जाए 
उन सुरीली लोरी की छाँव  …… निवेदिता 

शनिवार, 19 जुलाई 2014

एक दुआ तो माँगो मेरे दिल के सुकून की ………………


आज फिर से मिलेंगी
ढेर सारी दुआयें 
कोई बोलेगा सुखी रहो 
तो तुरंत ही दूजा बोले उठेगा 
दीर्घायु हो जीवन का सुख पाओ 
कोई सौभाग्य की तो 
कोई सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि की 

हर वर्ष की तरह 
मैं फिर से सोच रही हूँ 
क्या दुआओं में सिर्फ यही होना चाहिए 
या कहूँ जीवन के सुख की 
निश्चित निश्चिंतता के लिए 
अनिवार्य कारकों में जरूरी है 
सुख ,सौभाग्य ,सामाजिक प्रतिष्ठा 

काश !
किसी ने  … किसी एक ने भी 
अपनी दुआ में माँगा होता 
मेरे दिल का सुकून  .... 
एक ऐसा सुकून जो मिल सकता है 
सिर्फ तभी जब कभी भी  कहीं भी 
अपने अल्हणपने में बेबाक निकल सके 
हमारी बेटियाँ  .... और हाँ 
अपनी खिलखिलाहट रोकने को 
न ढांकना पड़े अपने चेहरे को  …

आज हर खबर में छाईं हैं बेटियाँ 
पर उनकी उपलब्धि नहीं 
बस पीड़ित हो कर 
वहशियों के मानसिक (?) दिवालियेपन का 
विज्ञापन सा बन गयी हैं बेटियाँ  …
हर बार की तरह 
शहर बदल गया और नाम बदल गया 
बस वहशत के हवाले हो गयीं बेटियाँ  ....…… निवेदिता  !

                                                     

रविवार, 6 जुलाई 2014

तुमने कहा था ......


तुमने कहा था 
निगाहें  फेरने के पहले 
"तुम जैसी बहुत मिल जाएगी "
अरे ये क्या 
मुझको छोड़ने के बाद भी 
चाहत क्यों तुम्हे 
मुझ जैसी की ही  ! 

आँसुओं से भरी 
ये आँखे छुपी रहें
कहीं दिख न जाएँ 
इनकी धारियां कपोलों पर  
हाँ ! बरसात में भीगने का 
एक शौक नया पाला है हमने  !

अब शायद समय ने भी 
ग्रहों की तरह 
बदल ली है 
अपनी चाल
सितारे चाँद को छोड़ 
सूरज के साथ झुलसने को 
अभिशप्त हैं  !


तुमने कहा था 
तुम मेरी दुनिया 
बदल दोगे 
सच ही कहा था 
अब जो दुनिया 
तुमने छोड़ी है मेरे लिए 
उसमें तो तुम ही बदल गए हो  ............. निवेदिता 

बुधवार, 2 जुलाई 2014

आइसक्रीम सा जीवन .....



जीवन अपना 
एक आइसक्रीम जैसा 
इसको तो पिघलना है 
चाहे इसके छोटे टुकड़े कर के 
मुँह में रख लें ,या फिर 
हाथ में थाम कर देखते रहें 
और व्यर्थ जाने दें ...… 

ये जो छोटे - छोटे से पल हैं 
जी चाहे तो जी लो 
जी न चाहे तो बीत जाने दो 
पर पिघली हुई आइसक्रीम 
पिघल कर याद बहुत आती है ..... निवेदिता 


मंगलवार, 24 जून 2014

सीता की अग्निपरीक्षा



जानकी ,जनकदुलारी ,सीता ,वैदेही 
इन पुकारों के बोल से निकल 
बस इक पल में ही बन गयी मैं 
अयोध्या की राजवधू ,राम की भार्या 
हाँ ! भार्या ही कहूँगी मैं तो 
क्यों  …
अरे ! ज़रा सोच कर देखो 
यदि होती मैं "रामप्रिया"
तो क्या राम इस तरह 
बार - बार …… हर बार 
मुझे ही परखते कसौटी पर 
पाँवों के नीचे मिलती तलवार की धार !

मैंने तो रोज़ हटाया शिव - धनुष को 
पर रही अनपहचानी ,निर्विकार 
बस एक बार ही तो उठा कर साधा 
राम ने और तोड़ भी दिया
और बन गए  .... 
हाँ ! मर्यादा पुरुषोत्तम राम !

राम को तो उनकी  माँ ने 
कराया वन गमन 
और मैं  .... 
मैं तो सबके रोकने पर भी 
अनुगामिनी बन बढ़ चली 
वन की दुष्कर वीथियों पर  .... 
और  .... 
हाँ ! बना दी गयी परछाई राम की !

शूर्पणखा के कर्ण - नासिका काट 
राम का पौरुष मर्यादित हुआ 
अकेली अशोक वाटिका में 
किया मैंने रावण का तिरस्कार 
और  …
हाँ ! स्त्रीत्व मेरा लांछित हुआ !

एक बार राम के साथ 
वन - गमन का परिणाम 
धोबी के प्रश्न रूपी शर संधान पर 
गर्भावस्था में किया मेरा परित्याग 
राम स्वयं तो मर्यादा -पुरुष बनाते गए 
पर  .... 
हाँ ! मुझे ही मर्यादा की लक्ष्मण रेखा में बांधते गए !

अग्निपरीक्षा क्यों दूँ मैं 
जीवनसाथी से अलग 
कहीं और रहना कारण है 
शुचिता प्रभावित करने का 
तो  .... 
हाँ ! ये पाप तो राम ने भी किया 
तब भी अग्निपरीक्षा सिर्फ और सिर्फ सीता की !

बहुत बार तुमने मुझको 
कसौटी पर कैसा 
बहुत बार मुझको तुमने 
अनायास ही त्याग दिया 
आज मैं तुम्हारा परित्याग करती हूँ 
जाओ फिर से मेरी स्वर्ण-प्रतिमा बना साथ बिठाओ 
मैं जनकपुर की धरती से उपजी 
आज फिर धरती में ही समा जाती हूँ  .... 
मांगते रहो मुझसे अग्निपरीक्षा 
मैं  .... 
हाँ ! मैं तुम्हारे ह्रदय में दावानल दे जाती हूँ !
                                                    ..... निवेदिता 


शुक्रवार, 20 जून 2014

ख्वाहिश ....



ख्वाहिशों की भी 
कितनी तो किस्में हैं 
कुछ बेबसी में पैदा होती हैं 
और कुछ बेबसी को बेबस कर देती हैं !

ख्वाहिशों की भी 
अजीब सी ख्वाहिशें हैं 
बेसबब सी जो महसूस होती हैं 
अकसर वो ज़िंदगी का सबब होती हैं !

रूह में पैबस्त 
जब कोई ख्वाब होता है 
हज़ार ख्वाहिशों की सरगोशियों में 
धड़कती उम्मीदों का इक बायस होता है !
                           - निवेदिता 

शनिवार, 14 जून 2014

दुलारों की याद का पल ....


भोर की पहली किरण 
जैसे आ - आ कर 
दुलरा कर खोल देती है 
पलकों की अधमुँदी सी 
आस भरी कलशिया 
बस एक ही छवि की 
चाह में भटकती हैं 
शायद कहीं मेरे जीवन की 
ऊष्मा ऊर्जवित कर दे और 
सामने दिखला जाए 
वो मासूम सी दुलारी हँसी !

रात की ये सिमटती हुई घड़ी 
सहलाती है पलकें और 
कानों में गुनगुना जाती है 
तनिक झपका लो पलकें 
प्रतीक्षा को विराम मिले ,और 
जिनकी स्वप्निल आँखों में 
सजाई थी तुमने सुरीली नींद 
आज नींद के पालने में 
ठुमकती आएगी ,और 
सजा जाएगी वो लाडलों की 
अनुपम छवि  …… निवेदिता !


सोमवार, 2 जून 2014

बिखरे लम्हे ( १ )


ओस को हमने 
कभी बरसते देखा नहीं 
क्या फूल भी कभी
अपना दामन
अपने ही अश्रुओं से
भिगोते हैं !
       
रात के दामन में 
आसमान ने
टांके थे सितारे 
बरसती ओस ने 
धुंधली कर दी 
चमक सितारों की !

कोई लम्हा जैसे 
अनायास ही 
सोती आँखों से 
उनींदापन हटाने
चहलकदमी करता 
गुज़रा है यहाँ से !   

पलकें अपनी यूँ ही 
मुंदी हुई रहने दो  
बस इतनी सी तो है
उम्र ,उम्मीदों भरे
इन पलकों तले 
सांस भरते खवाबों की !
               ..... निवेदिता 



मंगलवार, 27 मई 2014

पुण्य सलिला की तलाश में ......


गंगा जल 
सदैव गंगा की 
लहरों में ही नहीं मिलता 
पर हाँ !
कभी कभी जल पात्र 
या कह लो 
गंगाजली में भी रहता है 
पर .....
जब असली एकदम खरा 
शुद्ध ,पावन गंगा जल खोजा 
न गंगोत्री में मिला 
और ना गोमुख में ही !
बस इक मासूम सी 
झलक दिख ही गयी 
मनभाती न कर पाने 
और न मिल पाने पर 
छलक पड़ी 
नन्ही - नन्ही अँखड़ी में !
और मैने भी अपने 
दिल के सागर में 
सॅंजो लिया 
इस पुण्य सलिला को 
और हाँ !
अकसर खिलखिला कर 
मनचाही कर लेने पर 
इन्द्रधनुषी मोती 
छलक जाने 
पर भी 
पुण्य सलिला की 
तलाश पूरी हो जाती है ! ....... निवेदिता 


बुधवार, 21 मई 2014

सपने भी बेबस नहीं होते ......




कभी  गड्ढों  से  झाँक कर , पाँव में चुभ जाते हैं 
कभी  समतल  पर अटक कर , ठोकर बन जाते हैं 
कभी नन्ही सी किरच बन , पलकों को रुला जाते हैं 
कभी कनी - कनी जुड़ कर , चट्टान  भी बन जाते हैं 
कभी रेशा - रेशा बिखर कर , पर्वत  भी टूट जाते हैं 
आकार बदल जाता है , हर अंदाज़ भी बदल जाता है 
कभी इंसान नहीं बन सकते , पत्थर तो बस पत्थर हैं  
शायद इसीलिये ठोकरों में ही , ठोकर बन बसे रहते हैं 
सपने भी बेबस नहीं होते ,दिन का क्या सब बदलते हैं 
सिमटते हुए बिखर जाते हैं , बिखरे हुए सिमट जाते हैं 
बिखराव में भी बिखर कर ,यूँ ही सिमटना भूल जाते हैं 
मंदिर में पहुँच कर , पत्थर में रचे गये भगवान ही तो 
हम माटी के पुतलों से , अपना पूजन करवा जाते हैं ...... निवेदिता 

सोमवार, 5 मई 2014

खामोशी का पैरहन ......


                                        चंद साँसों का था ताना - बाना 
                                        रंग धागों का बेरंग हो गया 
                                        ओढ कर हर एहसास को 
                                        खामोशी का पैरहन हो गया


                                       अंधियारा सा इक लम्हा बढ़ा 
                                       खामोश नज़र छलक गयी 
                                       तस्वीर बनी थी धुंधली सी 
                                       न जाने कहाँ खो गयी 


                                       शाख से कैसे छूटा पुष्प 
                                       श्रृंगार कैसे बिखर गया 
                                       मधुमास को  जीवंत सा 
                                       वनवास मिल गया 


                                       खिलखिलाते मुस्कराते घर में 
                                       कैसे गूंगा एक कोना रह गया 
                                       रौशनी बरसाते चिराग के  
                                       दामन में अन्धेरा रम गया 


                                       जीवन का छलिया चक्र तो 
                                       बस एक की आँखों में 
                                       न जागने वाली नींद तो दूजे को 
                                       बेबसी की रातों का दंश दे गया  …… निवेदिता 

गुरुवार, 1 मई 2014

तुम .... तुम .... बस तुम .....


यादें तुम्हारी सावन सी 
कितना भी हटाओ 
जातीं ही नहीं !

बातें तुम्हारी मिश्री सी 
जब भी सुनूँ 
रसभरी लगे !

अनबन तुमसे माखन सी 
यादों की धड़कन में 
अटक नहीं पाती !

साथ तुम्हारा शमी (वृक्ष) सा 
ज़िंदगी की धूप 
इन्द्रधनुषी लगे !

तुम थे तुम ही हो 
यादें बस इसी की 
सलोनी लगे !

लम्हे साथ जो बिताये 
हर रंग की रंगत संजोये 
श्वेतमना सजे ! 
           निवेदिता …… 

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

गीता का ज्ञान ,पर किसके लिये .....





जब भी धर्म - अधर्म , नीति - अनीति , न्याय - अन्याय अथवा किसी निर्बल पर किसी निर्द्वंद ,निरंकुश के द्वारा किये गए अनाचार के परिणाम का जिक्र भी होता है , एकदम  तरल  भाव  से सहजता से अधिकतर "महाभारत" का ही उदाहरण देते हैं । महाभारत के जिक्र में ही कई भाव एक साथ प्रस्फुटित होते हैं । इस के मूल कारण के रूप में अनेक तथ्य भी दिखाते हैं । 

महाभारत मुझको अपने किसी और रूप से अधिक कर्मफल की  अवधारणा से अवमुक्त हो कर "कर्मयोगी" होने के लिए प्रेरित करता हुआ अधिक आकर्षित करता है । कुरुक्षेत्र के रण में युद्धपूर्व अर्जुन ने जब अपने ही आत्मीय स्वजनों को युद्ध के लिए तत्पर पाया ,तो वो युद्ध के बाद होने वाले समूल विनाश का आकलन  कर विचलित हो गए। उस समय अर्जुन के युद्ध-विरत होने से उत्पन्न परिस्थितियों की विकटता का आभास पा कर ,कृष्ण ने अर्जुन के मोहबंधन की कड़ियों को विश्रृंखल करने के लिए ,उनको कर्म की प्रमुखता का बोध करवाया और अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित किया । 

कृष्ण की ये सोच , कि  हर  व्यक्ति अपने कर्मफल के अनुसार ही जीवन व्यतीत करता है , अकसर सच ही लगती है । एक ही  परिवार के , एक   ही  परिवेश में पले - बढे दो व्यक्ति एकदम ही भिन्न स्तर से जीवन व्यतीत करते हैं - ये बात मात्र आर्थिक अथवा सामाजिक ही नहीं , अपितु मानसिक स्तर में भी लक्षित होती है । 

इन सब बातों से सहमत होते हुए भी मन बावरा अकसर ही बेबस सा एक जिज्ञासा का दंश दे ही देता है ! ये तथाकथित कर्मयोगी होने का ज्ञान क्या सच में सिर्फ अर्जुन के लिए ही था ? क्या अपनों के साथ युद्ध करने का कष्ट सिर्फ अर्जुन को ही था ? उस युद्धक्षेत्र में सिर्फ अर्जुन के  सामने  ही उसके  अपने नहीं थे , अपितु अपनी वचनबद्धता के फलस्वरूप कृष्ण के सामने उनके सारे अपने कौरवों की सेना के अंग बन कर युद्ध के लिए प्रस्तुत थे ! 

लगता है ,अर्जुन को दिया गया फलाफल की चिंता के बिना कर्म करने का ज्ञान कृष्ण ने स्वयं को भी दिया था। उस एक पल के कृष्ण मुझको तो एक ऐसे शिक्षक की तरह लगते हैं ,जो किसी प्रश्न पर स्वयं भी अटक जाने पर , बिना शिष्य को ये अटकना दर्शाये हुए , विभिन्न सूत्रों की सहायता से उस प्रश्न को स्वयं के लिए भी हल करने को प्रयासरत हो । 

बहरहाल ये ज्ञान चाहे कृष्ण ने अर्जुन को दिया हो अथवा स्वयं अपना ही आत्मबल बढ़ाया हो , पर परिणाम की परवाह किये बिना निर्लिप्त भाव से कर्म करने का सूत्र है बहुत काम का  ....... निवेदिता 

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

पूजा के कलश में प्रयुक्त वस्तुओं का महत्व


कलश :
कलश के विशिष्ट आकार के कारण उसके अंदर रिक्त स्थान में एक विशिष्ट सूक्ष्म नाद होता  है । इस सूक्ष्म नाद के कम्पन से ब्रम्हांड का शिव तत्व कलश की तरफ आकृष्ट होता है । 
समुद्र मंथन के  समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था । इसलिए एक मान्यता ये भी है कि कलश में सभी देवताओं का वास होता है । अत: पूजा में सबसे पहले कलश की स्थापना कर के देवताओं का आवाहन किया जाता है 

पानी 
कलश में पानी भर कर रखा जाता है । पानी को सर्वाधिक शुद्ध तत्व माना जाता है । संभवत: इसीलिये ये मान्यता भी है कि उसमें ईश्वरीय तत्व को आकृष्ट करने की क्षमता सर्वाधिक होती है । 

नारियल 
कलश पर नारियल रखने से उसकी शिखा में सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश करती है ,जो कलश के जल में प्रवाहित होती है । इस प्रक्रिया में कलश में  जल में तरंगे एक नियमित लय में उठती हैं । 

पंचरत्न :
पंचरत्नों में देवताओं के सगुण तत्व ग्रहण करने की क्षमता होती है । कलश के जल में पंचरत्न रखना त्याग का भी प्रतीक माना जाता है । 

सप्तनदियों का जल : 
गंगा ,गोदावरी ,यमुना ,सिंधु ,सरस्वती ,कावेरी और नर्मदा - अधिकांश ऋषियों ने इन नदियों के तट पर ही देवताओं के तत्वों को प्राप्त करने के लिए तपस्या की थी । सांकेतिक रूप में उनके तप के प्रभाव से शुद्ध हुयी नदियों के जल को हम देवताओं के अभिषेक स्वरूप कलश में रखते हैं । सप्तनदियों का जल न मिलने पर गंगा जल रखा जाता है ।

सुपारी और पान :
पान की बेल ,जिसको नागबेल भी कहते हैं , को भूलोक और ब्रम्ह्लोक को जोड़ने वाली कड़ी माना जाता है । इस में अवस्थित सात्विकता के फलस्वरूप इसमें भूमि तरंगों और ब्रम्ह तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है । कलश के जल में सुपारी डालने से उठने वाली तरंगे देवता के सगुण तत्व को ग्रहण करने की क्षमता बढ़ाती हैं ।

तुलसी - दल :
तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता सर्वाधिक होती है । तुलसी अपनी सात्विकता से जल के साथ देवता के तत्व को भी वातावरण में प्रेषित करती है ।

हल्दी - कुमकुम :
हल्दी जमीन की नीचे उगती है इसलिए उसमें भूमि तरंगों का प्रभाव बहुत अधिक होता है । कुमकुम हल्दी से ही बनती है ।

आम के पत्ते :
कलश में सभी सामग्री रखने के बाद आम के पांच अथवा सात पत्तों से ढंका जाता है । ऐसी मान्यता है कि देवता के आवाहन से कलश में उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा आम की डंठल के द्वारा ग्रहण की जाती है ।               ....  निवेदिता

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

बस एक भटका हुआ ख़याल ......

अपने सपने कभी भी 
आँखों में न बसाये रखना 
बाँध टूटेंगे जब पलकों के 
अँसुवन संग बहते हुए 
समय की भँवर में 
अटकते - भटकते 
ना पा सकेंगे कोई ओर - छोर !

सपने तो बस सजा लेना 
अपने दिल की अबूझ सी 
अतल गराइयों में 
हर पल की मासूम सी 
धड़कती संवेदनाएं 
उनमें भर देंगी 
अलबेले रंगों की अनथकी उड़ान ! ..... निवेदिता  

शनिवार, 22 मार्च 2014

कमलकलिका का प्रस्फुटन .......



                                          मेरे आँखों की  
                                                  तैरती नमी में
                                                        चमक सी गयी 
                                                              तुम्हारी छवि                                                                                                                            कमलकलिका का 
                                                                           प्रस्फुटन यही तो है !

                                        ओस की बूँदें 
                                               कमलदल पर 
                                                      मेरी रगों में 
                                                             सूर्य किरण सी 
                                                                     खिलती चपला 
                                                                             अवगुंठन हटा 
                                                                                    यादों की बदली की !


                                        स्मित मेरे लबों की 
                                              आती - जाती रहती है 
                                                       पर हाँ ! नयन मेरे 
                                                                सदैव मुस्कराते हैं 
                                                                       अरे ! इनमें ही तो 
                                                                               सपनों सा तुम 
                                                                                     बरबस सजे रहते हो !
                                                                                                                 - निवेदिता 

गुरुवार, 20 मार्च 2014

संवेदना की वेदना

अभी कुछ दिनों पहले हमारे घर में सफाई का काम करने वाली ,बड़े ही उदास मन से काम कर रही थी,कारण पूछने पर उस की व्यथा  पीड़ित कर गयी  … उसकी पांच साल की अबोध बच्ची अपने ही चाचा के वहशीपन का शिकार होते - होते बची ,जब उसने अपने पति से ये बात कही तो उसने इसको अपने परिवार की बदनामी होने का डर बता अनदेखा करने को कहा ,पर वो बच्ची हर पल अभी भी उसी डर और दहशत के माहौल में घुट रही है  ..... 

एक मन है मेरे पास भी 
जो संवेदनशील है 
इसीलिये वेदना भी 
अनुभव होती है 
तुम्हारा देखना देता है 
एक एहसास सुरक्षा का 
और जैसे ही बदलती हैं 
तुम्हारे निगाहें ,चुभ जाती है 
अस्थिर कर जाती हैं 
तन ही नहीं मन को भी 
जो धागे बांधे थे मैंने तुम्हारी कलाई पर 
एक आस थी एक विश्वास था 
और थी दुआ तुम्हारी सुख - समृद्धि की 
कैसे कहूँ ,उन धागों से ही तो बुनी थी 
अपने माथे को ढँकने को सतरंगी चूनर 
तुम्हारे ही हाथ कैसे बढ़ आये खींचने को 
वो मासूम से नाज़ुक से रेशे 
जो धड़कते थे और सींचते थे 
हमारे नेह के फ़ाख़ताई बंधन को 
ये कौन सा पल आता है जब 
आशीष देते हाथों की नरमाई बदल 
पैमाइश करने लगती है बदन के ताने - बाने की 
हे प्रभु ! अगर तू सच में कहीं है 
बस एक ही काम कर 
या तो मुझसे ये संवेदना की वेदना ले ले 
या फिर उन हाथों की हर पल बदलती मनोवृत्ति को थाम ले 
मैं भी विश्वास कर सकूँ और जी सकूँ  …....... निवेदिता 

सोमवार, 17 मार्च 2014

आज का अनुभव .... एक प्यारा सा एहसास


पिछले वर्ष ११ जुलाई दीदी ,मेरी जिठानी ,के देहावसान की वजह से ,हमारे रोज के काम ही किसी प्रकार बस एक खानापूरी की तरह होते हैं , तो किसी भी पर्व को उत्सवित करने का तो प्रश्न ही नहीं था  .... वो तो हर पर्व ,विशेषकर होली को तो बहुत ही अधिक जोश से मनाती थीं  .... कल से मन उनके साथ बिताई हुई होली की यादों में लुकाछिपी सी खेल रहा था  .... इस उदासी के ही किसी पल में मेरी एक सहेली का फोन आया ये पूछने को कि आज मैं क्या कर रही हूँ  ,मैंने भी अनमना सा जवाब दे दिया कि कुछ नहीं और अपने को दूसरे कामों में उलझा लिया  .... थोड़ी ही देर बाद हमारे घर की घंटी बजी तो मैंने पतिदेव को कहा ," देखिये कोई आपका ही मित्र होगा "  .... गेट खुलने के साथ ही अपने नाम की पुकार सुनी  तो  थोड़ा  आश्चर्य हुआ मेरी सभी सखियाँ खड़ी थीं  .... जब मैंने कहा कि इस वर्ष तो हम कोई भी पर्व नहीं मना रही हैं ,तो उनका उत्तर मेरी पलकें भिगो गया  .... उन्होंने कहा कि हम इसीलिये सबसे पहले तुम्हारे घर आये हैं और हम भी कोई त्यौहार नहीं मना रहा हैं बस तुम्हारी मंगलकामना करने आये हैं ,हमारा साथ सिर्फ सुख का ही नहीं दुःख को भी बाँट कर हल्का करने का भी है  .... साथ में आयीं एक बुज़ुर्ग सी आंटी ,जो मुझको अपनी बेटी मानती हैं , ने एक टीका अबीर का मेरे माथे पर लगा दिया और कहा ,"तुम्हारे मन की उदासी तो समय और ईश्वर ही कम कर पायेगा ,पर ये टीका तुम्हारे उतरे हुए चेहरे पर कुछ तो रंग लाएगा "  .... 

अपनी इन सखियों के जाते ही ,जैसे ही मैं अपने घर के अंदर आने लगी कि एक और समूह मेरी कुछ और सखियों का भी आ गया  .... सबके माथे पर सिर्फ एक टीका लगा था अबीर का ,उन्होंने भी मुझे एक टीका लगाया और कहा कि ये टीका किसी भी पर्व का नहीं अपितु सिर्फ शुभके भाव का है  …. उनकी बातों से मैं इतनी अभिभूत हो गयी कि मैंने भी उनसे ही अबीर ले कर उनके माथे पर भी टीका सजा दिया और अनुरोध किया कि वो लोग होली के पर्व को अपने घरों में जरूर मनाएं  .... 

इन दोनों अनुभवों के बाद से मन इतना भरा - भरा सा है कि लग रहा अपने अनजाने में ही हम कितने प्यारे और अनमोल रिश्ते बना लेते हैं जो हमारे मन की उदासी को अपने मन से बाँटना चाहते हैं  .... 

आज इन दोनों बातों से एक बहुत बड़ी सीख भी मिली ,कि किसी के दुःख भरे लम्हे कम करने के लिए सिर्फ उसको अकेला छोड़ना ही हर बार पर्याप्त नहीं होता बल्कि साथ में भी कुछ बोलते हुए पल भी बिताना चाहिए                                                                                                               …. निवेदिता 

रविवार, 9 मार्च 2014

अटके हुए लम्हे ……




ये वक्त भी न  …… 
बड़ी ही अजीब सी शै है 
जब तक चलता रहता है 
सच ! कुछ पता नहीं लगने देता 
जब कभी ,कहीं भूले से भी 
एक नन्हे से लम्हे को भी 
अपने कदमों को थाम लेता है 
अगले पल ही दम घोटती साँसे 
जतला जाती हैं महत्ता 
आगे और आगे बस उस अनदेखे से देखे 
बदलते और बढ़ते जाते अनजाने समय की 

ये वक्त का थमना भी 
लगता है जैसे तुमने साथ चलते हुए
अपनी राहें बदल ली हों 
और मैं बेबस सी ठिठकी 
हटा रहीं हूँ बिना घिरे हुए बादलों को 
इन बिनबरसे बादलों की बूँदे 
बड़े ही दुलार से जैसे सहेज ली हो 
मैंने अपनी ही पलकों तले 
और हाँ  …… 
तलाश रही हूँ अर्थ उस लम्हे का 
जब तुमने अपने बढ़ते हुए कदमों को रोक 
जतला दिया था मान अपने साथ चलने का 
बताओ उदासी का भी कोई कारण होता है क्या .... निवेदिता 

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

मेरा ही बसेरा हो ……


चाहते तो तुम्हारी 
बहुत सी हैं और 
पूरी भी की हैं मैंने 
अब  ….... 
आज  ........ 
एक बहुत ही 
छोटी सी चाहत ने 
अपनी अधमुंदी सी 
पलकें खोल ली है 
तुम्हे रास्तों की 
सफाई बहुत भाती है 
न हो कहीं कोई कंकड़ 
न ही राह थामने को 
सामने आये कोइ कंटक 
तुम्हारे इस अवरोधरहित 
सहज राजपथ के लिए 
मैं एक बार फिर से 
जानकी की तरह  
धरती की गोद में 
समा जाने को तत्पर हूँ 
बस तुम मुझे एक 
इकलौता वरदान दे दो 
मेरी ज़िंदगी गुज़रे 
अनवरत हिचकियों में 
और इन हिचकियों का  
इकलौता कारण हो 
तुम्हारी यादों में 
सिर्फ और सिर्फ 
मेरा ही बसेरा हो  …… निवेदिता 


बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

रिश्तों की गहराती दलदल ......


ये दलदल भी 
अजीब सी ही 
साँसें भरती है 
अनजाने ही 
बढ़ाते कदमों को 
थाम कर 
अपने में ही 
समा लेती हैं  .... 

ये रिश्ते भी 
अनोखापन लिए 
दम तोड़ते 
कदमों को 
जीवंत हो 
आगे ही आगे 
बढ़ते जाने को 
सहला देते हैं  ….. 

इस दलदल से 
अंकुराए रिश्ते 
मारीचिका बन 
मन की 
अनदेखी कंदराओं की 
अतल गहराईओं में 
उलझी सेवार से 
समा जाते हैं  .......


सच में
बड़ी ही
अजीब सी है
ये रिश्तों की
गहराती दलदल

छोड़ो भी ,
इस से हमें क्या
आओ ! चलो 

इस में डूब कर
कहीं दूर मिल जायें …… निवेदिता


   अर्चना दी ने मेरी इस भावानुभूति को अपनी आवाज़ दी है ,साथ में उनकी भी भावानुभूति भी ...... शुक्रिया दी :)

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

नेटवा बैरी ……

जब पढती थी ,तब अपनी कामवाली को अकसर गुनगुनाते हुए सुनती थी "रेलिया बैरिन पिया को लिये जाए रे …… " मैं उसको बहुत छेड़ती थी कि ऐसी कैसी रेल जो तेरे पिया को ले उड़ती है , तब वो भी थोड़ा हँसती थोड़ा खिसियाती कहती ,"पूछूँगी दीदी , कैसे ले जाती है "…… लगता है उस ऊपर वाले ने उसकी बात को कुछ अधिक ही गम्भीरता से ले लिया (

यहाँ तो सूरज चाचू अपनी उनींदी सी आँखें मल रहे होतें हैं कि पिया को ले जाने वाले कारक पंक्तिबद्ध होने लगते हैं  …….  सबसे पहले तो मुआ पेपरवाला पेपर दे जाता है और वो भी  एक नहीं दो - दो ,थोड़ा आगे बढ़ते ही फिर से पलट वापस कर आ पूछ लेता है ," भईया जी , ई वाली मैगजीन लेंगे ...." तुरंत ही पेपर और पत्रिकाओं को सम्हालते हुए पतिदेव सामने रहते हुए भी गायब हो जाते हैं  ……. 

पेपर में ध्यान लगे होने से गरमागरम चाय पर तो पाला पड़ना ही था …… गर्म और अच्छी सी चाय की पुकार पर थोड़ी सी आशाएं जागृत होतीं हैं कि अब तो अपनी बात भी सुनी जायेगी ,पर .……और भी बैरी हैं भई .…

अब तक तो फ़ोन , मोबाइल भी और जमीनी भी ……. अब फोन हाथ में आते ही नेट की याद आना तो एक सहज और बड़ी ही सामान्य सी क्रिया है  …..… थोड़ा ब्लॉग और बहुत सारा फेसबुक पर नितांत आवश्यक (?) काम निबटाया जाता है  ….....  अब फोन पर अक्षर थोड़े छोटे (?) दिख रहे थे , तो डेस्कटॉप तक पहुँचने का  नितांत जिम्मेदारी भरा जीवनदायी कदम उठाना मजबूरी हो जाती है  …… कितने बड़े - बड़े त्याग करने पड़ते हैं  …… बड़ी  ही कठिन योग - साधना होती है ,अगली प्रक्रिया कानों तक निरंतर दस्तक देती घंटी की आवाज़ को नज़रअंदाज़ करना और वो भी उस परिस्थिति में जब बीबी घंटी से भी तेज़ और तीखी आवाज़ में एहसास दिला रही हो  ....… पर ये नेटवा बैरी कुछ सुनने दे तब न  (




           
                                          ( अमित जी अपने बक्से ,बोले तो डेस्कटॉप के साथ )

फिर सोचा कि एक आदर्श भारतीय  नारी की तरह अपने "पतिदेवता" की चाहत को ही अपना भी धर्म बना लिया जाए ,बस  तभी से हम भी कोशिश करने  लगे नेटवा बैरी से दोस्ती करने की ,पर उन की नेट से दोस्ती के एकाधिकार के सामने हम अल्पमत क्या किसी भी मत में नहीं रहे  ....… चलिए अपनेराम अपनी उस पुरानी कामवाली को याद करते हुए संगीत का ही अभ्यास कर लेते हैं  ....… अपने उसी पुराने गीत के साथ "नेटवा बैरी पिया को लिये जाये रे ....... निवेदिता 


शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

कल्पवृक्ष ......


हाँ ,सुना है 
कल्पवृक्ष
पूरी करता है 
कामनाएं सबकी 
पर ये 
कैसा होता होगा 
इसकी शाखा -प्रशाखाएँ 
इसको देती होंगी 
कितना विस्तार  ……

कैसे बनता होगा 
कोई भी वृक्ष 
एक कल्पवृक्ष 
कितना स्नेह 
कितनी संवेदनायें 
कितनी विशालता 
कितनी अधिक 
असीमित होंगी
इसकी भी सीमायें  …… 

सबकी कामनायें 
पूरी करने में 
अपनी कितनी साँसे 
कभी न ले पाता होगा 
धड़कन औरों की 
सहेजते - सहेजते 
अपने लिए धड़कना 
याद न रख पाता होगा  ....... 

हम सबने ही पाये थे 
अपने - अपने कल्पवृक्ष 
वो उँगली थामे 
काँटों से बचाये रखते 
अपनी खुशियाँ करते 
वो न्योछावर हम पर 
परे हटा देते अपनी 
हर हसरत  …..... 

बदलते समय के साथ 
पौधों को भी 
कुछ बढ़ना ही है  
कल्पवृक्ष की छाया से 
कहीं आगे निकल 
नयी पौध के लिए 
कल्पवृक्ष बनना ही है ....... निवेदिता 

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

आईना और परछाँई



ये अपना रिश्ता भी न  
सच बड़ा ही अलग सा है ,  
अपने बारे में जब भी सोचा  
तो तुम बस तुम दिख जाते हो , 
तुम को जब भी जानना चाहा 
तो आईना बन मैं ही दिख जाती हूँ , 
सूरज की तीखी चमक हो 
या चाँद की स्निग्ध शीतलता , 
परछाँई सा रच - बस कर   
एक दूजे की धड़कन बन जाते हैं ,
अपने हर सवाल का 
अपनी हर उलझन  का 
हर हल एक दूजे में ही पा जाते हैं 
इस रिश्ते को क्या कहूँ 
आईना और परछाँई का 
परछाँई के आईने का या 
आईने की परछाँई का रिश्ता  …… निवेदिता 

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

अलबेली तिजोरी ...


वो पावन सी समिधा 
वो हवन की सुगंध 
मंत्रो का सान्निध्य 
झिझकते हुए कदम 
अजनबी सी निगाहें 
एक छोटा सा लम्हा 
एक शोख सा रंग 
एक बंधी हुई चुटकी 
और धूसर सी मांग 
पर चमकती  लाली 
शुक्र तारे को परे हटा 
सूर्य किरणों ने ली 
सपनीली सी अँगड़ाई  …

महावर की ललछौंही चमक 
बिछिये की श्वेत शीतलता 
चूनर में झिलमिलाते 
स्वपनिल  सितारे 
दो जुड़े हाथों ने 
सहेज ली अरमानों सजी 
ईश्वरीय सौगातों से भरी 
अपनी अलबेली तिजोरी  ... निवेदिता 

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

"ईश्वरीय वरदान सा अपना साथ "


यह इत्तिफ़ाक ही तो है ,
जो अपना साथ है 
ना मैं तुम्हे जानती ,
न तुम मुझे पहचानते 
मैं तो थी अपनी पढ़ाई में मस्त
 तुम थे अपना कैरियर बनाने में व्यस्त 
शायद था , तुम से मिलना,
शाश्वत सत्य 
सीप में मोती सा
सहेज रखा 
इसे ही कहते हैं
जन्म -जन्मातर का साथ 
आज जीवन की इस मधुरिम बेला में 
लगता है सब तो पा लिया 
प्यारे से दो चाँद -सितारे 
आस्मां से मांग लाये 
सच सज गया
अपना मन -आंगन
शायद इस जीवन का ही
दिया सबने आशीर्वाद 
तभी तो मांगती हूँ 
जन्म -जन्म का साथ 
इन छब्बीस वर्षों का साथ ,
एक प्यारे सपने सा सजा है
स्वपनीली आखों में 
तुम्हे भी मुबारक -मुझे भी मुबारक 
ये ईश्वरीय वरदान सा अपना साथ .........  निवेदिता  :)