कभी गड्ढों से झाँक कर , पाँव में चुभ जाते हैं
कभी समतल पर अटक कर , ठोकर बन जाते हैं
कभी नन्ही सी किरच बन , पलकों को रुला जाते हैं
कभी कनी - कनी जुड़ कर , चट्टान भी बन जाते हैं
कभी रेशा - रेशा बिखर कर , पर्वत भी टूट जाते हैं
आकार बदल जाता है , हर अंदाज़ भी बदल जाता है
कभी इंसान नहीं बन सकते , पत्थर तो बस पत्थर हैं
शायद इसीलिये ठोकरों में ही , ठोकर बन बसे रहते हैं
सपने भी बेबस नहीं होते ,दिन का क्या सब बदलते हैं
सिमटते हुए बिखर जाते हैं , बिखरे हुए सिमट जाते हैं
बिखराव में भी बिखर कर ,यूँ ही सिमटना भूल जाते हैं
मंदिर में पहुँच कर , पत्थर में रचे गये भगवान ही तो
हम माटी के पुतलों से , अपना पूजन करवा जाते हैं ...... निवेदिता
सिमटते हुए बिखर जाते हैं , बिखरे हुए सिमट जाते हैं
जवाब देंहटाएंबिखराव में भी बिखर कर ,यूँ ही सिमटना भूल जाते हैं
बेतरतीब से पर सधे हुए ..... शायद यही विशेषता है इनकी
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (22-05-2014) को अच्छे दिन (चर्चा-1620) पर भी है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आपका :)
हटाएं"मंदिर में पहुँच कर , पत्थर में रचे गये भगवान ही तो ... हम माटी के पुतलों से , अपना पूजन करवा जाते हैं ...."
जवाब देंहटाएंक्या बात है ... जय हो |
:)
हटाएंआभार आपका :)
जवाब देंहटाएंआभार आपका :)
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें |
जवाब देंहटाएंमंदिर में पहुँच कर , पत्थर में रचे गये भगवान ही तो
जवाब देंहटाएंहम माटी के पुतलों से , अपना पूजन करवा जाते हैं ....
क्या बात है .......बहुत ही उम्दा
मंदिर में पहुँच कर , पत्थर में रचे गये भगवान ही तो
जवाब देंहटाएंहम माटी के पुतलों से , अपना पूजन करवा जाते हैं...बहुत सुन्दर..
हम माटी के पुतलों से , अपना पूजन करवा जाते हैं
जवाब देंहटाएंवाह !!
kyaa baat hai bhabhi !! laajawab !
जवाब देंहटाएंकभी इंसान नहीं बन सकते , पत्थर तो बस पत्थर हैं
जवाब देंहटाएंशायद इसीलिये ठोकरों में ही , ठोकर बन बसे रहते हैं
बहुत ही सुन्दर और गहन बात !!
सस्नेह
अनु
बहुत ही सुंदर गहन भावाभिव्यक्ति...दी
जवाब देंहटाएं