प्राचीन काल से ही हमारी भारतीय संस्कृति स्त्रियों को प्राथमिकता देने की रही है। मेरी इस पंक्ति का विरोध मत सोचने लगिये। मैं भी मानती हूँ कि आज के परिवेश में स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं। तब भी एक पल का धैर्य धारण कीजिये ।
पहले नौ दिनों तक देवी माँ के विभिन्न रूपों की आराधना की हमने। नवमी के दिन हवन और कन्या पूजन के पश्चात हम तुरन्त ही आ गये पर्व दशहरा को उत्सवित करने की तैयारियों में व्यस्त होने लगते हैं। स्त्री रूप देवी की आराधना करने के बाद, एक और स्त्री 'सीता' को समाज मे गरिमा देने का पर्व है दशहरा।
दशहरा पर राम द्वारा रावण के वध का विभिन्न स्थानों की रामलीला में मंचन किया जाता है। सीता हरण के बाद रावण से उनको मुक्त कर के समाज में स्त्री की गरिमा को बनाये रखने और अन्य राज्यों में रघुवंश के सामर्थ्य को स्थापित करने के लिये ही राम ने रावण का वध किया था।
दशहरा मनाने के पीछे की मूल धारणा, एक तरह से बुराई पर अच्छाई की विजय को प्रस्थापित करना ही है, परन्तु क्या हर वर्ष रामलीला के मंचन में मात्र रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले जला देने से ही बुराई पर अच्छाई की जीत हो जाएगी, वह भी अनन्त काल के लिये? सोच कर खुश होने में कोई नुकसान तो नहीं है, परन्तु सत्य का सामना तो करना ही पड़ेगा। जिन बुराइयों अथवा कुरीतियों को हम समाप्त समझने लगते हैं, वो ही अपना रुप बदल कर एक नये कलेवर में आ कर फिर हमारी साँसों में चुभने लगती है।
दशहरा पर्व को 'विजयदशमी' भी कहते हैं। कभी सोच कर देखिये ये नाम क्यों दिया गया अथवा राम ने दशमी के दिन ही रावण का वध क्यों किया? राम तो ईश्वर के अवतार थे। वो तो किसी भी पल, यहाँ तक कि सीता हरण के समय ही, रावण का वध कर सकते थे, अपितु यह भी कह सकते हैं कि सीता - हरण की परिस्थिति आने ही नहीं देते।
धार्मिक सोच से अलग हो कर सिर्फ एक नेतृ अथवा समाज सुधारक की दृष्टि से इस पूरे प्रकरण में राम की विचारधारा को देखिये, तब उनके एक नये ही रूप का पता चलता है।
तत्कालीन परिस्थितियाँ शक्तिशाली के निरंतर शक्तिशाली होने और दमित - शोषित वर्ग के और भी शोषित होने के ही अवसर दिखा रही थीं। शक्ति सत्तासम्पन्न राज्य अपनी श्री वृद्धि के लिये अन्य राज्यों पर आक्रमण करते रहते थे और परास्त होने वाले राज्य को आर्थिक, सामाजिक, मानसिक हर प्रकार से प्रताणित करते रहते थे। राम ने वनवास काल में इस शोषित वर्ग में एक आत्म चेतना जगाने का काम किया।
सोई हुई आत्मा को मर्मान्तक नींद से जगाने के लिये भी राम को इतना समय नहीं लगना था। परन्तु इस राममयी सोच का वंदन करने को दिल चाहता है। उन्होंने सिर्फ आँखे ही नहीं खोली अपितु पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेंद्रियों को जाग्रत करने का काम किया। कर्मेन्द्रियों के कार्य को समझ सकने के लिये ही ज्ञानेंद्रियों की आवश्यकता होती है। जिन पाँच तत्वों से शरीर बनता है वो हैं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं गगन। इन पाँचों तत्वों का अनुभव करने के लिये ही कर्मेन्द्रियों की रचना हुई। पृथ्वी तत्व का विषय है गन्ध, उसका अनुभव करने के लिये नाक की व्युत्पत्ति हुई। जल तत्व के विषय रस का अनुभव जिव्हा से करते हैं। अग्नि तत्व के रूप को देखने के लिये आँख की व्युत्पत्ति हुई। वायु का तत्व स्पर्श है और उस स्पर्श का अनुभव बिना त्वचा के हो ही नहीं सकता है। आकाश का तत्व शब्द है, जिसको सुन पाने के लिये कान की व्युत्पत्ति हुई। जब पाँचों कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ जागृत हो जायेंगी, तब जीव का मूलाधार आत्मा स्वतः ही जागृत हो जायेगी।
विजयादशमी का अर्थ ही है कि दसों इंद्रियों पर विजय पाई जाये। इनके जागृत होने का अर्थ ही है कि व्यक्ति अपने परिवेश के प्रति, अपने प्रति सचेत रहे। सचेत व्यक्ति गलत अथवा सही में अंतर को भी समझने लगता है। यह समझ, यह चेतना ही न्याय अन्याय में अंतर कर के स्वयं को न्याय का पक्षधर बना देती है। इस प्रकार न्याय के पक्ष में बढ़ता मनोबल, क्रमिक रूप से अन्याय का नाश कर देता है।
एक वायदा अपनेआप से अवश्य करना चाहिए कि विजयादशमी / दशहरा पर्व मनाने के लिये सिर्फ रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले ही न जलायें, अपितु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का आपसी तालमेल सटीक रूप में साधें जिससे चेतना सदैव जागृत रहे। जीवन और समाज मे व्याप्त बुराई को जला कर नहीं, अपितु अकेला कर के समूल रूप से नष्ट करें।
इस प्रकार की बुराई की पराजय का पर्व सबको शुभ हो !!!
निवेदिता 'निवी'
लखनऊ
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