धर्म हमारे जीवन में इस हद तक रच बस गया है कि उसके विषय में कुछ भी सोचे या विवेचना किये बिना ही अंधानुकरण करते रह जाते हैं और एक दिन उसके चक्रव्यूह में उलझे चल देते हैं इस दुनिया से। कभी सोच के देखा ही नहीं कि धर्म है क्या तो धर्म निरपेक्षता का दावा कैसे कर सकते हैं, यद्यपि खोखला वादा और दावा दोनों ही कर के हम आत्मिक शान्ति अनुभव करते हैं।
धर्म की प्रचलित मान्यता के अनुसार हम इसको विभिन्न अनुष्ठानों में बाँध कर मन्दिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारा तक सीमित कर देते हैं, जबकि धर्म तो अंतरात्मा से जुड़ा हुआ होना चाहिए। जब हम इस अवस्था में पहुँच जाते हैं तब सबको स्वयं सा मान कर सबके लिए भी संवेदनशील हो जाते हैं, न कि सिर्फ़ अपनी विचारधारा को वरीयता देकर अन्य की उपेक्षा करेंगे।
धर्म निरपेक्षता का गूढ़ अर्थ यह कभी नहीं है कि हम अपनी प्रचलित धार्मिक परम्पराओं / मान्यताओं का पालन करने के साथ ही दूसरों को उनकी धार्मिक परम्पराओं / मान्यताओं का पालन करने की स्वतंत्रता देते हैं। सच पूछिये तो दूसरों को यह स्वतंत्रता देने के हम अधिकारी न तो हैं और न ही कभी हो सकते हैं।
मेरे विचारानुसार धर्म निरपेक्षता का सीधा और स्पष्ट मर्म यही है कि दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप किये बिना ही, प्रत्येक व्यक्ति (एक ही परिवार के भी स्त्री-पुरूष दोनों ही) अपने विवेक के अनुसार और सुविधा के अनुसार आत्मिक शान्ति अनुभूत करे।
धर्म निरपेक्ष होने के लिए धर्म की आत्मा को समझना आवश्यक है क्योंकि धर्म का मर्म ही संवेदनशीलता है।
निवेदिता श्रीवास्तव निवी
लखनऊ
विचारणीय आलेख।
जवाब देंहटाएंसच मे बहुत अच्छा विचारणीय आलेख है।
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