लघुकथा : कन्यादान
भाभी ! हम लोगों का समय ही ठीक था । छह - सात साल की होते ही लड़कियों की शादी कर दी जाती थी । बताओ इतनी बड़ी हो गयी ये इला ... अभी भी पढ़ाई की जिद्द करती रहती है ।
पढ़ लेने दो न जिज्जी ... पढ़ - लिख कर तो अच्छा - बुरा समझने लगेगी और फिर जीवन जिस राह ले जायेगा ,ये सब सम्हाल लेगी ।
तुम्हारी बात सही है भाभी ... पर यही सोच रही हूँ कि अकेली बिटिया है ये ,इसका भी बिना कन्यादान किये मर गये ,तब न जाने कौन सा नरक मिले ! बड़े - बूढ़े कहते भी तो थे कि बेटियों की शादी जल्दी न करने से पाप लगता है । इसी पाप से बचने के लिये ही तो इसकी शादी करना चाह रही हूँ ।
इला के कानों तक माँ और मामी की बातों की आवाज पहुँच रही थी । वह भी परेशान हो गयी थी माँ को समझाते - समझाते । अब आज उसकी शादी को नया मोड़ दे कर कन्यादान ,पाप ,पुण्य ... क्या - क्या बोलने लगीं हैं ।
इला कमरे से बाहर आ गयी ,"माँ ! परेशान मत होओ शादी मैं जरूर करूँगी ... परन्तु मैं उसके पहले इतनी सामर्थ्य जुटाना चाहती हूँ कि मेरी ससुराल या पति कोई भी तुम लोगों को बोझ या एहसान न समझ कर मेरी माता - पिता का सम्मान दे .... और ये जो कन्यादान किये बिना नरक की भागीदार बनने का डर समाया है न ,इसको तो अपने अन्दर से निकाल फेंको । कन्या का तो पाणिग्रहण होता है दान नहीं । कन्यादान का मतलब है उसकी आर्थिक सुरक्षा के लिये परिजनों द्वारा दिये गये उपहार । इसी आत्मनिर्भरता के लिये ही तो पढ़ाई सबसे जरूरी है जो मैं करना चाहती हूँ ।"
.... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना मंगलवार १ दिसंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंगुरु नानक देव जयन्ती
और कार्तिक पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ।
सुन्दर व सटीक रचना ।
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