सखी अकेली तुम्हें न रहने दूंगी
धूप के ताप में न जलने दूंगी
तुम्हारे अश्रुधार रोक नहीं सकती
अश्रु न जमीं पर गिरने दूंगी
सखी अकेले न तुमको रहने दूंगी
जलधार का बहना रोक नहीं सकती
दिल की नमी पलको धर लूंगी
दर्द की राह रोक नहीं सकती
दर्द न अकेले सहने दूंगी
सखी अकेले न तुमको रहने दूंगी
तूफानी लहरों को रोक नहीं सकती
पदतल की मिट्टी रेत न बनने दूंगी
तानों की बौछार रोक नहीं सकती
मन ही मन न घुटने दूंगी
सखी अकेले न तुमको रहने दूंगी
पतझर आये जब मन के मौसम में
तुमको न यूँ मुरझाने दूंगी
तुम्हारे साथी को तो न रोक सकी
तुमको न यूँ जाने दूंगी
सखी अकेले न तुमको रहने दूंगी
हँसी तुम्हारे अधरों पर ला न सकी
मुस्कान तो मन मे बसा दूंगी
सखी अकेले न तुमको रहने दूंगी
... निवेदिता
बहुत सुन्दर कविता । हार्दिक आभार ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-05-2019) को "देश और देशभक्ति" (चर्चा अंक- 3342) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'