लघुकथा : मुआवजा
"काकी एक मिनट के लिये बाहर आ जाओ न । देखो ये सब अधिकारी तुमसे मिलने के लिये कब से बैठे हैं । अब तो देखो न मंत्री जी भी आ गये हैं । " अन्विता पड़ोसन काकी को बुलाने बाहर तक आ गयी थी । वो सोच रही थी कि शून्य में खोई काकी कुछ तो बोलें । उस मनहूस पल में फोन ने बोल कर जैसे काकी के सारे शब्दों को छीन लिया था ।
सब कमरे में झाँक कर तरह तरह के प्रयास कर रहे थे उनकी स्तब्धता भंग करने की । अचानक ही मंत्री जी की आवाज आई ,"आप सब परेशान न हों । इनको मुआवजा भी मिलेगा और मैं स्वयं सपरिवार इनके पालन पोषण की जिम्मेदारी लेता हूँ ।"
काकी झपट कर बाहर आ गईं ,"आप या कोई भी क्या मुआवजा देगा किसीको भी । हमारे ही पैसे जो हमने टैक्स में जमा किये हैं वही तो देंगे । कौन सा आप अपनी जेब से दे रहे हैं जो इतने बड़बोले हो रहे हैं । हम सैन्य परिवार हैं जो सम्मान को परिभाषित करते हैं । अगर कुछ कर सकते हैं तो बस यही कर दीजिये कि जब हम आतंकवादियों को पकड़ें तब उनको छोड़ने को विवश मत कीजिये । पत्थरबाजों को पकड़ने के हमारे प्रयास पर हम पर कोर्ट केस न हों । निर्णय लेने में इतनी शिथिलता भी न दिखाइये कि हम बिना युद्ध किये ही भितरघात में विदा हो जाएं । अरे जनाब हमारा चयन और ट्रेनिंग युद्ध के लिए होती है न कि इस प्रकार मरने के लिये । "
.... निवेदिता
.... निवेदिता