शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

तुम.......मैं...........

तुम मेरा दक्षिण पथ बनो

मैं बनूँ पूर्व दिशा तुम्हारी
तुम पर हो अवसान मेरा
मै बनूँ सूर्य किरण तुम्हारी
तुम तक जा कर श्वास थमे मेरी
इससे बडी अभिलाषा क्या मेरी
अगर अन्तिम श्वास  पर मिलो तुम
इससे परे शगुन क्या विचारूं
हर पल अब तो बस पन्थ निहारूं
जीवन यात्रा का हो अवसान
बन प्रतिनिधि  तुम काल के
आ विचरो मेरे श्वास पथ पर
तुम मेरा दक्षिण पथ बनो
मै बनूँ ......   निवेदिता 

9 टिप्‍पणियां:

  1. तुम गगन के चन्द्रमा हो मैं धरा की धूल हूँ
    तुम प्रणय के देवता हो, मैं समर्पित फूल हूँ!
    /
    अपनी छोटी बहन की इस रचना में उसके संस्कार देख भावुक हो रहा हूँ! सौभाग्यवती भव!

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    1. भईया ,आपका स्नेहाशीष मिल जाता है तो बस यही आभास होता है कि सातवे आसमान पर हूँ .. सादर !

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  2. अरे वाह अमित भैया तो गदगद हो गए होंगे पढ़कर.... :)

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  3. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (18-01-2015) को "सियासत क्यों जीती?" (चर्चा - 1862) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....

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  5. इस भाव पूर्ण रचना के लिए बधाई स्वीकारें

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  6. निःशब्द प्रेम को परिभाषित लिया है ... दिशा अवसान ही नहीं उदय के लिए भी है ...

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