झरोख़ा

"आंखों" के झरोखों से बाहर की दुनिया और "मन" के झरोखे से अपने अंदर की दुनिया देखती हूँ। बस और कुछ नहीं ।

रविवार, 29 अगस्त 2010

ख्वाब

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                अगर खवाब अपने को नही बदलते तो हम ही अपने को क्यो बदले ? ख्वाब टूटते  रहे हम भी नये बुनते रहेगे ।  देखते है पह्ले कौन थकता है...
2 टिप्‍पणियां:
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निवेदिता श्रीवास्तव
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