सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

कलश - स्थापना से पहले ........



हमेशा की तरह इस बार भी " नवरात्रि " आते ही कलश - स्थापना की तैयारियों में हम सब ही पूरे मन से लग गये हैं | कभी सामग्रियों की एक सूची बनाते हैं  ,तो कभी और बेहतर तरीका सोचते हैं माँ दुर्गा को  प्रसन्न करने के लिए | फूलों की लड़ियों से माँ का दरबार सजाते हुए , बिद्युत लड़ियों की झालर भी लगा कर मनोहारी रूप निहार कर , कभी मन ही मन , तो कभी मुखर हो मुदित हो लेते हैं | बाज़ार पहुँचते ही कभी तारों भरी चुनरी तलाशते हैं तो कभी वस्त्रों की छटा से मुग्ध होते हैं | पूजा की पुस्तकों से "दुर्गा सप्तशती" को भी बड़े ही आदर से माथे से लगा कर सजा लेते हैं | कलश स्थापना का मुहूर्त बीत न जाए इसके लिए सजग हो जौ बीजने को तत्पर हो जाते हैं | 

पर ये सारे विधि-विधान किस लिए ? देवी पूजन के लिए ? देवी जो मात्र  एक स्त्री हैं उनका इतना मान ? कभी अपनी अंतरात्मा से पूछ कर देखिये कि क्या हम इसके अधिकारी हैं भी ? किसी भी स्त्री के लिए दु:शासन बनने को तत्पर व्यक्ति किस ह्क़ से माँ दुर्गा को चुनरी चढाने की तैयारी का दिखावा करता है ! इससे बड़ा विद्रूप और क्या हो सकता है ! या फिर इसको हम ये मान लें कि वो भी स्त्री के दुर्गा रूप का ही आदर करता है ,क्योंकि वो उसकी दुष्प्रवृत्तियों का दमन कर सकती है |

अगर हम दुर्गा माँ के एक सौ आठ नाम न भी याद कर पायें तब भी उनके सिर्फ नौ नाम -शैलपुत्री ,ब्रम्ह्चारिणी ,चन्द्रघण्टा ,कूष्मांडा ,स्कन्दमाता , कात्यायनी ,कालरात्रि ,महागौरी ,सिधिदात्री - तो याद कर ही सकतें हैं | ये सिर्फ नाम नहीं हैं माँ के विविध शक्ति रूप हैं |  ये भी न याद रख पायें तब  भी देवी  रूप में  सिर्फ  देवी  लक्ष्मी  को  ही  न  भजें , अपितु  देवी  सरस्वती  को भी प्रमुख स्थान दें |देवी सरस्वती की महत्ता स्वीकार करने से नीर-क्षीर में भेद कर पायेंगे और अपने प्रत्येक आचरण के औचित्य को भी परखेंगे |

आज की इस विकृत मानसिकता के दौर में , स्त्री के सरस्वती रूप को याद रखना  थोड़ा  मुश्किल हो सकता है क्योंकि आमजन को लक्ष्मी पूजन करना है जिससे वो अपने ऐश्वर्य के संसाधन जुटा सके | हाँ यदा - कदा स्त्री के आत्मबल जाग जाने पर उसके शक्ति रूप से सहमना भी पड़ जाता है | परन्तु अगर सरस्वती के साधक हो जाएँ तब तो कोई  समस्या रह ही नहीं जायेगी | इसका सीधा सा कारण है कि तब स्त्री भी एक ऐसा विवेकशील व्यक्तित्व दिखेगी न कि ऐसा तत्व जिसको जब भी चाहा और जैसे भी चाहा प्रताड़ित और वंचित किया जा सके ! अगर कभी ऐसा हो जाए तो सच में कुछ अच्छा और सच्चा पढने और देखने को मिलेगा | अभी तो किसी भी दिन का समाचार पत्र देखिये अथवा टी.वी. के समाचार , एक वाक्य में आने वाले पूर्णविराम अथवा कॉमा के चिन्ह की तरह अबोध उम्र की बच्चियों के जीवन को भी लांछित करने वाले समाचार ही दिखाई देते हैं |  

बस एक ही विनम्र निवेदन है कि ,इस बार कलश - स्थापना के पूर्व स्वयं का आकलन कर लें कि स्त्री की गरिमा को समझने में हम कितने इमानदार हैं और बातों के अतिरिक्त आवश्यकता पड़ने पर कभी उसके पक्ष में आने का साहस भी दिखाएँ !
                                                             -निवेदिता                                                                                     

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

"प्रायोपवेशन"



"प्रायोपवेशन" ....... जब भी इसके बारे में पढ़ा अथवा  सोचा मानस अजीब सी दुविधा में पड़ जाता है | समझ नहीं पाती हूँ कि ये चुनौतियों से पराजय की स्वीकृति है  अथवा नित नवीन उमड़ते झंझावातों से विरक्ति ! एक पल को लगता है जैसे कि ये  समस्त  दायित्वों के सफलमना होने की अति संतुष्टि के बाद की उपजी उदास और विरक्त मानसिक स्थिति है , परन्तु  अगले ही पल लगता है कि सम्भवत:  ये एक  हड़बड़ी  में लिया गया अनुचित निर्णय है | कोई भी पल कभी भी इतना सफल  नहीं हो सकता कि  वो किसी को  इस  ह्द तक तोड़ दे कि वो सब कुछ समाप्त करने का विचार करने लगे !

सब  समाप्त करने का निर्णय कितना कठिन होता होगा और उससे भी दुरूह  होता  है उस  निर्णय को  कार्यान्वित कर पाना | सबके  लिए  निर्णय लेने में सक्षम व्यक्ति स्वयं अपने लिए ऐसा निर्बल कैसे हो सकता है कि जीवन्तता त्याग कुछ अन्य सोचे ! इस निर्णय को लेने के पहले उस के बाद की परिस्थितियों का आकलन भी करता है ,उसके औचित्य और अनौचित्य को भी भरपूर सोचता है ,तब भी इतना कमजोर कैसे हो जाता है !

इस निर्णय के पीछे अगर उसके किसी अपने के प्रति कोई दुश्चिंता छिपी रहती है , तब भी उसके  न  रहने  पर  उसका  वो प्रिय कैसे संतुष्ट  हो पायेगा ! पता  नहीं ये  कुछ  कमजोर  पलों में प्रभावी होने वाली दुर्बलता होती है अथवा कठिन लम्हों में उसका बिखराव इसका कारण होता है ! बहरहाल कारण जो भी हो ये किसी भी समस्या का समाधान तो कभी हो ही नहीं सकता | हाँ ! आने वाली नित नवीन समस्याओं का कारण अवश्य होता है ....
                                                                                                          -निवेदिता 

( प्रायोपवेशन उस अवस्था को कहते हैं जब मृत्यु की कामना करते हुए या कहूँ कि प्रतीक्षा में अन्न - जल का त्याग कर देते हैं | आत्महत्या की एक तरह से धीमी प्रक्रिया है ये | )