आज सूर्य की ,
धरा पर झांकने को तत्पर,किरणों से
मैं सूर्यपुत्र कुछ कहना चाहता हूँ
मैंने तो कभी न पाली किसी के प्रति
अपने मन में कोई दुर्भावना ,फिर -
मुझे मिली किस अपराध की सजा !
सूर्य पुत्र हो कर भी सूत पुत्र माना गया
जीवन भर छला ही गया .................
कभी माँ ,कभी पिता और कभी
अनुजों का ,अरे हाँ !
अनुज वधू का भी दोषी बना
ये शायद थी मेरे अंतस की ही आँच
शैशव काल से ही निडर
हर डर को डराता रहा !
कभी वसु ,कभी वसुषेण तो
कभी अंगराज कहलाया
पर ये सूत पुत्र का सम्बोधन
तपती लू सा जलाता यूँ ही
पीछा करता रहा .....
सत्यसेन की भगिनी ,
वृषाली का अनुपम साहचर्य मिला
पर द्रौपदी की स्वयंवर सभा में
यूँ कुंठित हुआ............
कवच कुंडल से वंचित हुआ ,तब
माँ के आँचल की पहचान मिली !
अगर मित्र घाती होता ,तभी
कृष्ण -पांडवों का बंधुत्व मिलता !
दुर्योधन ने बंधुत्व निभाया ,पर
पांडवों से अपनी ढ़ाल बनाया......
जीवन के हर पल ऐसे ही छला गया ...
आज अपना अंत भी कुछ ऐसे ही पाया
छलिया कृष्ण के छल से .........
मानव अंगों और रुधिर के दलदल में,
जीवन चक्र सा फंस गया ,
मेरा रथ चक्र.........................
आहत हुआ अपने ही अनुज से
जब था मैं एकदम नि:शस्त्र...
छोटों से क्या शिकायत करना ,
जब ज्येष्ठों ने अस्वीकार दिया !
पर सूर्य पुत्र कहलाया हूँ ,तब
तुम्हे कुछ तो कहना ही होगा ...
जब इंद्र ने मांग कवच-कुंडल
अर्जुन के प्राणों को सुरक्षित किया
तब भी क्यों न जाग पाया
तुम में पुत्र प्रेम ..............
--निवेदिता