मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

डर ज़िंदगी के



डर एक ऐसा शब्द या भाव है जो अपनी जगह बहुत जल्दी और बहुत पक्की बना लेता है ,जिससे उबरना असंभव तो नहीं परन्तु कठिन अवश्य होता है । 


डर का मूल कारण मोह होता है ... मोह जो होता अपनेआप से और अपनों के संग बंधे मोह तंतु से । जन्म लेते ही शिशु रोता है और रौशनी से चौंक कर आँखें मिचमिचाता है क्योंकि उसको माँ के गर्भ की सुरक्षित दुनिया से एकदम अलग नई दुनिया मिलती है ,जहाँ सब कुछ सर्वथा अनजाना रहता है । फिर तो उम्र भर ज़िंदगी कदम - कदम पर कभी ठोकर देती तो कभी दुलरा कर अपने रंग से उसको परिचित कराती रहती है । 


अपनों की सुरक्षा और उन्नति की चाहत लिये हम सतत प्रयत्नशील रहते हैं और इस राह में उन के सामने आने वाली कठिनाइयों के बारे में सोच - सोच कर डरते रहते हैं । कभी - कभी तो मुझे लगता है कि मंगल की कामना करने के साथ ही अमंगल भी दिखने लगता है ,जिससे बचाने के प्रयास में हम अपनी आस्थानुसार विभिन्न धार्मिक कर्मकांड भी करने लगते हैं । अंधविश्वासी न भी हों ,तब भी कई काम यही सोच के कर जाते हैं कि उस से किसी का नुकसान भी तो नहीं हो रहा है । 


अक्सर सोचती हूँ कि थोड़ा सा डरना भी बहुत आवश्यक है । यही डर हमको सचेत रखता है आनेवाले खतरों से ,जिसके परिणामस्वरूप ही गलतियाँ करने बच जाते हैं । आत्मघाती निर्णय लेने से यही डर ही हमको बचाता है क्योंकि हम यह कल्पना करते हैं कि हमारे अपनों पर उस काम का प्रभाव भी पड़ेगा । 


ज़िंदगी हमको इस डर की आँखों में आँखें डाल कर उसके सम्मुख खड़े होना भी सिखाती है ,जो बहुत जरूरी भी है । समाज मे विचरण करते पाशविक मनोवृत्ति वाले लोगों से डर कर ,घरों में ही छुप कर नहीं बैठा जा सकता है । आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि डर की भावना को चेतावनी समझें बन्धन नहीं । 


प्रत्येक पल डर के साये में जीना स्वयं में भी मानसिक विकृतियों को जन्म दे देगा ,जो न स्वयं के हित में होगा और न ही समाज के । बस इसीलिये सहअस्तित्व के भाव से डर की सत्ता को स्वीकृति अवश्य दें परन्तु उसको अपने दिल - दिमाग में घर न बसाने दें ।

                                      ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें