सोमवार, 26 अगस्त 2019

कमजोर पलों की गुनहगारी ....

कंकाल सी उसकी काया थी
पेट पीठ में उसके समायी थी

बेबसी वक्त की मारी थी
कैसी वक्त की लाचारी थी

डगमगाते पग रख रही थी
मानती ना खुद को बेचारी थी

पुकार अबला की सुन नहीं पाती थी
पुत्रमोह में बन गयी गांधारी थी

अपना कर्मफल मान सह गई
पहले कभी की न कुविचारी थी

हर पल जीती जी मर गई
कमजोर पलों की गुनहगारी थी ... निवेदिता

1 टिप्पणी:

  1. आपके शब्दों का चयन और प्रवाह इसे पठनीय बना रहा है | शानदार बन पड़ी हैं पंक्तियाँ

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