शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

कहानी : उफान

 कहानी : उफान

इतने दिनों की भागदौड़ के बाद की गई व्यवस्था से संतुष्ट और असन्तुष्ट अतिथियों के जाने के बाद ,कुनमुनाता मन थकान अनुभव कर रहा था । चाय का कप लिये मैं झूले पर आ गयी थी ।

आयोजन भी तो इतना बड़ा था ... बेटे की शादी ,वो भी इस पीढ़ी के सबसे बड़े बच्चे की शादी । सबकी अपेक्षाएं जैसे आसमान छू रही थीं । कभी ननद रानी का फोन आ जाता ,"भाभी क्या कर रही हो ? अच्छा शॉपिंग में व्यस्त हो ! बताओ न मेरे लिये क्या लिया ... याद रखना बुआ की सारी रस्में होनी चाहिए । उसमें कोई बहाना नहीं सुनूँगी ।" हँसी आ गयी छुटकी ननद की इस बात पर । सबसे छोटी और सबकी लाडली बहन ,इनकी हर बात और चाहत पर मन न्यौछावर हो जाता था ।

जेठ - देवर का उत्साह अलग ही था कि बारात में बैण्ड अच्छा होना चाहिए । सच मे कितना नाचे थे सब । मुश्किल से पंद्रह मिनट का रास्ता सबने लगभग चार घण्टों में झूमते - थिरकते पूरा किया था ।

रस्मों के बीच अनगिनत काँटों की चुभन भी अनुभव की ,जो कभी तानों जैसे मजाक के रूप में दिखती तो कभी असहयोग या कह लूँ कि काम बिगाड़ने के प्रयास के रूप में । इतने समय से इन्ही के बीच संतुलन साधते जीवन बीता था इसलिए अनदेखा कर मैं दूसरी तरफ खुद को व्यस्त कर लेती थी । परन्तु बच्चे ... उनके लिये रिश्तों और रिश्तेदारों का ये रूप असह्य हो रहा था ।

एक पल को मेरा भी मन बिखर सा गया था ,जब बहू को देनेवाली अँगूठी मुझे दिखाते हुए कहा गया ,"हाथ मे लेकर देखिये कितनी भारी है । बुरा समय आने पर बेचने से अच्छे पैसे मिलेंगे ।" सच मैं तो हतप्रभ रह गई कि जिन बच्चों ने अभी जीवन शुरू भी नहीं किया है, उनके लिये ही ऐसी सोच ! एक पल लगा था मुझे सम्हलने में ,फिर मैंने कहा था ,"पहले तो ये दुआ करो कि ऐसी नौबत ही न आये ... और तब भी कभी दुर्योग से ऐसा हुआ भी तो अभी हम बड़े उनके सामने कवच सरीखे खड़े रहेंगे । उपहार में बद्दुआ की सम्भावना भी नहीं देनी चाहिए ।"
हँसी में ही ये कह कर मैंने बात आई गयी कर दी थी । सामने ही मेरी लाडो ,मेरी अन्विता भी सब देख रही थी ।

अभी और पता नहीं क्या - क्या सोच जाता मन कि अन्विता की आवाज सुनाई दी ,"माँ ... माँ ... आप कहाँ हैं ।" 

मैंने उसको भी अपने साथ ही झूले पर बैठा लिया । उसके मन की खौलन को मैं समझ रही थी ,परन्तु कुछ भी न कह कर शांत ही रही कि देखूँ वो ऐसी परिस्थिति में खुद पर कितना नियंत्रण रख पाती है । एक माँ के रूप में मैं जानती थी कि आत्मनियंत्रण कोई और नहीं ऐसी परिस्थितियाँ ही सिखाती हैं ।

"माँ सबकी अपेक्षाओं की सूली पर चढ़ते चढ़ते ,आप थकती नहीं हैं क्या ? आपसे हर व्यक्ति सिर्फ उम्मीद ही करता रहता है परन्तु आप हैं कि उनकी गलत बातों और आदतों को अनदेखा कर के ढीले पड़ गये रिश्तों में नए सिरे से कड़क वाला कलफ लगाने चल देती हैं । मुझे नहीं अच्छा लगता जब कोई भी आपके इस भोलेपन का लाभ उठता है " ... अन्विता जैसे अंदर से भरी बैठी थी ,थोड़ी देर में वो बोल उठी ।

मैंने एक मीठी से हँसी से उसको अपनी गोद मे जैसे छुपा लिया ,"चल बिट्टू आज मैं तेरे सारे सवालों के जवाब दूंगी । जानती हूँ कि कोई भी बच्चा अपने माता पिता के अच्छे स्वभाव का दोहन होते देख दुखी होता है ,तुम भी हो रही हो । मैं भी मानती हूँ कि डोर को तोड़ना बहुत सरल है परन्तु उसमें लचीलापन बनाये रख कर सन्तुलन साधना थोड़ा मुश्किल है । बस ये लचीलापन ही रिश्तों को मृत होने से रोकता है । तुम जिसको समझती हो कि दूसरा हमारा फायदा उठा रहा है वो ही उनकी कमजोरी और हमारी सामर्थ्य दर्शाता है ,जिसको वो भी मानते हैं । जैसे बीमारियाँ शरीर में रहती हैं और हम उनका इलाज करते हैं वैसे ही खट्टे मीठे रिश्ते भी परिवार में होते हैं जिनका निर्वाह उसमे रहकर ही करना होता है .... बात के बनने बिगड़ने में सिर्फ उस एक डिग्री का ही अंतर होता है जो boiling point के ठीक पहले का होता है ... । और सबसे जरूरी बात जिस बीमारी का इलाज सम्भव नहीं होता और वो अंग शरीर को नुकसान पहुंचाने लगता है ,उसका ऑपरेशन तो करना ही पड़ता है ... बस पहचानना जरूरी है ।"   - निवेदिता

3 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-08-2019) को " समाई हुई हैं इसी जिन्दगी में " (चर्चा अंक- 3430) पर भी होगी।

    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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  2. ये हर जिंदगी की एक कड़वी सच्चाई है ।

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  3. बहुत ही सुलझे तरीके से रिश्तों के कठिन समीकरणों को व्याख्यायित करती हुई सुंंदर संवेदनशील कहानी ! बहुत बढ़िया निवेदिता जी !

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