शुक्रवार, 21 जून 2013

इखरे - बिखरे - निखरे आखर



नन्ही सी फ़ाख्ता दुनियावी तौर - तरीको से बेखबर अपनी छोटी सी दुनिया में मगन थी । अपने नन्हे - नन्हे  पंजों में समा पाने लायक आसमान को ही उसने अपनी दुनिया बना रखा था । उसको न तो बड़ी सी दुनिया की चाहत थी और न ही दूसरों को मिली असीमित सीमाओं से शिकायत ! छोटी - छोटी आँखों में पलते सपने भी बड़े मासूम थे । उन सपनों से ही जैसे उसका जीवन ऊर्जा पाता था । 

बदलते लम्हों को जैसे उसकी निर्द्वन्द किलकारियां असह्य हो गईं और हर पल उसकी सीमाओं का एहसास उसको कराया जाने लगा । उसकी अच्छाइयां ही जैसे उससे शत्रुता करने लगीं थीं ! उसकी मासूमियत उसकी सबसे बड़ी बाधक बन गयी । उसने कभी निगाहों की भाषा और लबों की भाषा में अंतर नहीं रखा , शायद इसीलिये  उसके पंखों को नोचने बढ़ते हाथों को वो देख नहीं पायी । 

कभी सुना था कि कार्य से अधिक सोच या कह लें नीयत अधिक फल देती है और उसने इसका अनुभव भी हर पल में किया । शायद सबका शुभ चाहने और सोचने की उसकी सहजता उसको फल देने लगी थी । अब उसके नन्हे पंजों और कमजोर पंखों में अब ईश्वर अपना स्नेह भरने लग गया था और उसके नन्हे कदम और छोटी - छोटी उड़ान अब उसकी गरिमा मानी जाने लगी । उसका उपहास बनाते लम्बे कदम भी छोटे - छोटे कदम रखने का प्रयास करने लगे हैं । शायद यही उस कमजोर फ़ाख्ता की नीयत की शुभता थी .......
                                                                                                               - निवेदिता 

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