बुधवार, 20 मार्च 2013

कुत्ता - पुलिस की तैनाती


जब भी कोई राष्ट्रीय पर्व आता है अथवा विभिन्न धर्मों से सम्बन्धित कोई पर्व और हाँ ! आतंकी वारदात होने पर भी समाचार में अकसर पढ़ती थी "कुत्ता - पुलिस" की तैनाती का । ये समाचार अजीब सी उलझन छोड़ जाता था कि ये "कुत्ता - पुलिस" है क्या ? ट्रेन में भी अकसर देखा आगे - आगे कुत्ता चलता है जैकेट पहने हुए ,एकदम शहंशाही रुतबे के साथ जो चाहे सूँघता हुआ और उसके पीछे - पीछे कुछ खाकी वर्दी पहने मनुष्य नामधारी प्राणी । दोनों में से किसका रूतबा अधिक है ये समझ ही नहीं आता था । 

इस उलझन को सुलझाने के लिए बहुत मनन किया तो कुछ उलझनें बिन्दुवार प्रकट हुई ,चलिए आपको भी बता देते हैं :-

१ - पुलिस कुत्ता है 
         अथवा 
२ - कुत्ता पुलिस है 
         अथवा 
३ - ये कुत्ता और पुलिस दोनों से सम्बन्धित है 

अब देखिये पहले बिंदु को मानने में हम जैसे शरीफ ,बोले तो डरपोक नागरिक का तो राम नाम सत्य ही हो जाएगा । अब आप ही बताइए पुलिस तो कोई मनुष्य ही बन सकता है । पशु और वो भी कुत्ता ,राम भजिये किसी इंसान में अभी इतनी इंसानियत नहीं आ पायी है कि वो स्वयं में कुत्ते के गुण विकसित कर सके ! 

अब आते हैं दूसरे बिंदु पर कुत्ता पुलिस है ,स्वीकार कर पाने जैसी छोटी सी बात मान जाने जितनी समझ भी अपने में तो नहीं है । क्या करें मजबूरी भी तो कोई  चीज होती है । एक बहुत मामूली सी बात है - आज तक ऐसा कोई कुत्ता नहीं दिखा जो अपने ही मालिक ,जो कि उसका पालन - पोषण करता है ,को काटता हो अथवा नुकसान पहुंचा सका है । जबकि पुलिस उस आम जनता का ही सबसे अधिक शोषण करती है ,जो विभिन्न कर के रूप में उसका वेतन तथा अन्य भत्ते देता है । अगर कभी कोई कुत्ता पागल हो जाता है अथवा अपने स्वामी को किसी भी प्रकार की क्षति पहुँचाने का प्रयास करता है ,तो उसको दंड देने में एक पल का भी विलम्ब नहीं होता । पर क्या कभी किसी पुलिसकर्मी के विरुद्ध हम ऐसा सोच भी सकते हैं ? इसलिए दूसरा बिंदु भी वृहद विरोध के चलते बहुमत से अस्वीकार किया जाता है !

अब हमारे पास बचता है तीसरा बिंदु कि ये कुत्ता और पुलिस दोनों ही से पृथक रूप से सम्बन्धित है ! दोनों ही पृथक प्रकृति के स्वतंत्र जीव हैं । कुत्ता तो जैसा उसका प्रशिक्षण होता है ,उसके अनुसार ही काम करता है । दूसरे शब्दों में कहें तो उसके मस्तिष्क रूपी कम्प्यूटर में जो प्रोग्राम संजो देते हैं , बस उसका अनुसरण करता है । जबकि मनुष्य या कह लें पुलिस के पास अपनी स्वतंत्र सोच और कार्यशैली होती है । पुलिस को हम कुत्ते जैसा भी नहीं देख सकते हैं । जानते हैं क्यों ,अगर वो वैसी हो गयी तो वो सिर्फ उसका ही काम करेगी जो उसको अतिरिक्त रूप से लाभान्वित करेगा ,अर्थात रिश्वत और रिश्वतखोरों की जयजयकार होगी और न्याय लुप्तप्राय श्रेणी के जीवों में सम्मिलित हो जायेगी ! पर हाँ  उनकी प्रतिबद्धता देश और समाज के प्रति होनी चाहिए । 

अब इतने मनन के बाद अपनेराम तो समझ गये कि ये पुलिस नामधारी इंसानऔर कुत्ता नामधारी पशु की तैनाती से सम्बन्धित है । अब थोड़ा सा स्वयं  की सुरक्षा भी आवश्यक है न ! तो इस पूरी उधेड़बुन की मंशा किसी को अपमानित करना नहीं है अपितु दोनों का गुणों का स्पष्ट विभाजन करके वस्तुस्थिति को समझने का एक विनम्र प्रयास है । कोई किसीसे ईर्ष्या न करे बस अपने संतुलित गुणों से समृद्ध रहे !!!!!

मंगलवार, 19 मार्च 2013

विज्ञापन - अर्थ का अनर्थ



कभी आपने सोचा है कि वो कौन सी चीज है जो सुबह आँखे खुलने से लेकर एकदम बेसुध हो कर सो जाने तक भी आपका पीछा नहीं छोड़ती ..... नि:संदेह वो इकलौती चीज है विज्ञापन ! 

नींद खुलते ही निगाहें ,अपनेआप ही किसी ख़ास चेहरे की तलाश करती हैं ! जानते हैं क्यों , क्योंकि "उसका चेहरा हमारे लिए लकी है "..... याद आया न एक साबुन का विज्ञापन ! वैसे ये तो मैं भी करती हूँ । आँखें बंद किये हुए ही अपना सेलफोन खोजती हूँ कि पहली निगाह बच्चों की तस्वीर पर ही पड़े :)  दांतों को साफ़ करते समय भी आत्मविश्वास बढ़ता हुआ महसूस होता है , भई हमारी क्या गलती विज्ञापन तो यही कहता है । चाय बिस्किट से लेकर दाल - चावल - आटा - मीठा कुछ भी प्रयोग करें कोई न कोई विज्ञापन याद आ ही जाता है । अगर हमको न याद आये तो याद दिलानेवाले कहीं आस - पास से प्रकट हो ही जाते हैं ,आखिर समाजसेवा भी कोई चीज़ है ! पता चलता है बच्चों को बड़े ही प्यार से बोला "गुडनाईट" और जवाब मिलता है -"हाँ मम्मी लगा लिया । "

विज्ञापनों से अपनी कोई दुश्मनी नहीं है भई ,पर क्या करें कुछ विज्ञापन ऐसे होते हैं कि अर्थ का अनर्थ करते वाक्य ही याद आते हैं । ये विज्ञापन हमारे दैनंदिन की बोलचाल से चुराए हुए वाक्यों से बनते हैं । ऐसे ही कुछ विज्ञापन देखिये ....... वैसे आप चाहें तो आप भी कुछ विज्ञापन याद दिला सकतें हैं ....

१ - टेढ़ा है पर मेरा है । ( कुरकुरे )
       (बाकी सब तो ठीक है पर मेरा वाला ही टेढ़ा क्यों है )

२ - Little less is always better .( panasonic )
       (अगर बच्चे ने परीक्षाफल दिखाते हुए यही कह दिया तो ...)

३ - कौन  पहले बल्लेबाज़ी करेगा - उंगली घुमा के बोल ( सॉस )
      (रिश्वत की प्राथमिक पाठशाला )

४ - कीटाणु मारे सिर्फ दस सेकेण्ड में ( लाइफब्वाय )
      (दस सेकेण्ड में तो साबुन फ़ैल ही पायेगा फिर कीटाणु ...)

५ - डर के आगे जीत है ( शीतल पेय )
      (जीत तो बिना डरे भी मिल सकती है पर डर के अनर्थ भी हो सकता है ...)

६ - दिखावे पर न जाओ ,अपनी अक्ल लगाओ (
      (पर भैय्ये आप भी तो अपना प्रोडक्ट दिखा रहे हो ...)

७ - पच्चीस का हो गया हूँ ,अब नहीं तो कब पटाउंगा 
      (अभी तक तो मतदान की ही उम्र के बारे में सुना था ,ये पटाने की उम्र ..)

८ - मेरे बाल मेरे स्ट्रेस का पता नहीं चलने देते ( केयो - कार्पिन )  
      (चलो भई  ,एक विग खरीद लेते हैं )

               चलिए मिलते हैं कुछ और विज्ञापनों से ज्ञानार्जन करने के बाद ...... निवेदिता 



बुधवार, 13 मार्च 2013

एक छोटी सी गुल्लक - और कुछ चाहतें


आज रख दिया 
भगवान के सामने 
एक छोटी सी गुल्लक 
बड़े - बड़े सपनों और 
छोटी सी चाहत के साथ

मासूम से कदमों को 
मिले निष्कंटक धरा 
निष्पाप नयन निरखें  
निश्छल आसमान 
थामने बढ़ी उंगलियाँ 
पकड़ सकें सुदृढ़ हाथ 
इन्द्रधनुषी रंग से   
सजे सप्तरंगी मन
साथ में मिल जाए 
अपने अपनों का साथ

बताओ न !
क्या दे सकते हो 
ऐसा वरदान 
भर जाए मेरी 
छोटी सी गुल्लक 
बस थोड़ी जगह 
बच भी जाए
आखिर  
कुछ तुम भी तो 
अपने मन का दोगे 
हाँ ! जो होगा 
मेरे ही कर्मों का फल ......
                         -निवेदिता 
  



सोमवार, 11 मार्च 2013

अनकही दास्तां ......



एक तारा टूट गया 
बस यूँ लगा 
जैसे आसमां की 
चांदनी भरी आँखों से 
एक बूँद आंसू की 
छलक ही गयी 

बस एक सूखा सा 
पत्ता ही तो 
बिखरा है शाखा से 
जैसे कोई रिश्ता
बिखर गया हो 
कई जन्मों का 

दम तोड़ गये  
कई अबोले शब्द 
तुम्हारे खामोश 
जज्बातों की आंधी में  
बदल गये रिश्तों की 
अनकही दास्तां 
          -निवेदिता 

शनिवार, 9 मार्च 2013

एक कदम आगे चलो न ......

एक कदम आगे चलो न ...........
ये अनुरोध था या आदेश समझ ही नही पायी ,बस इन शब्दों को ही गुनती रह गयी और मुदित हो उठी :)
दरअसल ये और किसी ने नहीं अपितु हमारे बड़े बेटे "अनिमेष " ने दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर 
कहे थे । जब उसने भीड़ के एक बड़े से रेले को आते  और मेरी ख़रामा - ख़रामा अपने में मस्त चहलकदमी 
को देखा , तो चिंतित सा हो कर तुरंत मेरी बाँह थामी और बोला ,"मुझसे एक कदम आगे ,मेरे सामने चलो 
मैं तुमको देख सकूँ ऐसे ।" उस एक छोटे से पल में लगा जैसे मेरा छोटा सा बच्चा कितना बड़ा हो गया है 
और सच कहूँ तो लगा हमारे पापा अपनी सुरक्षा की छाँव में सहेजने को रूप बदल कर वापस आ गये है ! 
पूरी यात्रा में ऐसे कई लम्हे आये । ऊपर की शायिका पर मुझे चढ़ाने के लिये विश्वास से भरा हुआ अपना कंधा आगे कर के मेरा हाथ थाम लिया था उसने और मै नि:संशय हो ऊपर जा कर सो गयी । 

ये एक ऐसा लम्हा था ,जिसकी राह सम्भवत: हर माँ देखती है । घर से निकलने के पहले अनिमेष मेरी गोद में दुबका हुआ एक नन्हा सा शिशु ही लग रहा था । मैं मन ही मन सोच रही थी कि मेरा बच्चा बड़ा कब होगा । अभी तो घर के पास ही कानपुर में है , कोई भी जरूरत पड़ने पर हम तुरंत उसके पास पहुँच जाते थे । 
पर अब तो ज़िन्दगी की राहें घर से कुछ अलग और अनजानी राहों पर ले जायेंगी और वहाँ हर दिन उस को नयी चुनौतियों का सामना करना होगा । उन परिस्थितियों में वो क्या करेगा ,यही सोचती अशांत हो जाती थी । वैसे भी बच्चे कितने भी बड़े हो जाएँ माँ को वो बहुत छोटे ही लगते हैं । 

ईश्वर भी सृजन करते हैं एक माँ की तरह ,सम्भवत: इसीलिये उन्होंने ऐसी परिस्थिति ला कर मेरे डावाँडोल 
होते मन को इतनी सुखद अनुभूति देते हुए दृढ कर दिया । लगता है ज़िन्दगी की संशय भरी प्रखर ताप भरी दुपहरी पर स्नेहिल छाँव की बदली लहरा रही हो और मीठे - मीठे लम्हे ओस की तरह मेरे कमलमन को अभिसिंचित कर रहे हों !!!

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

अधिकार जलाने का .......

कुछ  दिनों पहले एक बुजुर्ग के देहांत पर उनके घर गयी थी । वहाँ का माहौल गरिमापूर्ण अवसाद का था । एक बुजुर्ग ,जो अपने समस्त दायित्वों को पूरा कर चुके थे ,अपनी अंतिम शय्या पर चिरविश्राम की मुद्रा में लेटे थे । पास ही उनकी बहू ,बेटी और पौत्रियाँ विषादग्रस्त बैठी थी ,बीच - बीच में क्रमानुसार जा कर विविध दायित्वों को पूरा कर रही थीं । मन बरबस ही "नम:शिवाय" का जाप करने लगा था । अचानक भुनभुनाहट जैसी ध्वनि उभरने लगीं कि संस्कार कौन करेगा ! किसी ने मुझसे भी ये सवाल पूछा , मैंने अनायास ही कह दिया जिन लोगों ने उनके अंत समय इतनी सेवा की है उन बहू-बेटियों को ही करना चाहिए । मेरा इतना कहना ही जैसे मधुमक्खियों को डंक मारने का स्वर्णिम अवसर दे गया । विभिन्न दावों और प्रतिदावों का निर्णय सुनाया गया कि जलाने का अधिकार तो बेटों का ही है ! मैं हतप्रभ रह गयी कि सेवा का अधिकार या कहूँ कर्तव्य सिर्फ बहू और बेटियों का है , उस समय बेटे नहीं याद आते !

वहाँ से वापस अपने घर आने के बाद भी इस "जलाने के अधिकार" पर ही सोचती रही । रह-रह कर ये सोच  
मन को खरोंचती रही कि हम अपने बेटों को सिर्फ अपनी चिता की आग की सेंक ही क्यों देते हैं ! अपने विचारों की सेंक से उनको क्यों अछूता रखते हैं ! हम विभिन्न बहाने बना कर ,कभी उनके कम उम्र होने का तो कभी उनकी अपनी व्यस्तताओं का ,उनको अपनी वेदनाओं से अलग रखने के लिया सतत प्रयत्नरत रहते हैं । इस क्रम में ही बेटे अपनी दुनिया में व्यस्त भी हो जाते हैं और मस्त भी । उनको अभिभावकों की याद उनकी मृत्यु होने पर ही आती है और चिता को अग्नि देने के अधिकार अथवा कर्तव्य जो भी कह लें ,को पूरा करने आ जाते हैं । 

इस प्रक्रिया में बेटे कोई गुनाह न करके भी गुनाहगार बन जाते हैं । मुझे शिकायत बेटों से नहीं है । आक्रोश तो समाज के ठेकेदारों से है , जो इस परम्परा का पालन करने में इतने अतिउत्साहित हो जाते हैं कि बेटियों की अनदेखी कर देते हैं । अग्नि देने के अधिकारी के रूप में तो कभी - कभी ऐसे लोगों को सामने खड़ा कर दिया जाता है ,जो इस व्यक्ति के जीतेजी ही उनकी मारने का प्रयास करते हैं । 

कभी-कभी लगता है कि अच्छा है ये जलाने का अधिकार बेटियों को नहीं मिला ,क्योकि वो तो जलाने के नाम पर चूल्हा ही अच्छे से जला पाएंगी क्योंकि अपनों को जला पाना सच में बेहद तकलीफदेह होता होगा ......
                                                                                                                  -निवेदिता