रविवार, 28 अगस्त 2011

आज मेरे ब्लॉग "झरोखा" की पहली वर्षगांठ है :)



आज की ही तारीख "२८ अगस्त "को पिछले वर्ष ,बहुत सारी झिझक भरी हिचकिचाहट के साथ ,विद्यार्थी जीवन की डायरी से शुरू हुआ सफर जो नितांत व्यक्तिगत था ," झरोखा " के साथ ब्लाग जगत में आने का साहस किया | इस दुनिया में आने के लिए बड़े भाई सदृश "श्री अनूप शुक्ल जी " ने  प्रेरित किया और इसमें पूरा साथ और समर्थन मेरे better half "अमित "ने दिया | झरोखा की पहली पोस्ट में सिर्फ चंद शब्द ही थे | इस एक वर्ष में गद्य और पद्य दोनों में ही प्रयास किया ......... इस प्रयास में आप मित्रों ने भी पढ़ कर और टिप्पणी दे कर मनोबल बढाया | शुरू की पोस्ट में जब कोई  टिप्पणी नहीं मिली ,तब अक्सर ख्याल आता था कि सम्भवत:मेरे लेखन में इतनी परिपक्वता अभी नहीं है इसीलिये कोई पढ़ता नहीं है | सबसे पहली टिप्पणी जाकिर अली जी की आयी ....... फिर धीरे-धीरे मित्र समर्थन देते गए और पहली वर्षगाँठ भी आज आ गयी | 
अपने ब्लॉग की विधा के बारे में सिर्फ इतना ही कहूँगी कि ये उस पल में आये हुए मेरे मनोभाव हैं .............. धन्यवाद !!!

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

ये कैसा समर्थन ..........



" हम समर्थन करते हैं " ये कहना और मानव श्रृंखला या कोई मंच बनाना  जितना आसान है ,उससे कहीं बहुत अधिक कठिन है उस को अपने आचरण में उतार पाना | सहमत होना तो एक तरह से विचारों को स्वीकार करना है | इसके बिलकुल विपरीत है समर्थन | अगर हम वास्तविक अर्थों में किसी भी विचारधारा का समर्थन करते हैं ,तो हमें उसको अपने जीवन में उतारना भी चाहिए | ये तो खुद को ही धोखा देना हुआ कि हम समर्थन तो जरूर आपका करते हैं ,पर अपना जीवन एकदम या अंशत: विपरीत दिशा में जीना चाहते हैं | इसका कारण भी सिर्फ इतना सा है कि हम अपनी सुविधाओं से समझौता नहीं कर सकते हैं | 

जब भी हम ऐसी परिस्थिति में होते हैं ,तब अनेक राहें हमारा ध्यानाकर्षण करना चाहती हैं | ऐसे में हम अपनी जीवन तुला के दोनों पलड़ों - परिवार अथवा समाज ........ किसको चुनें जैसी दुविधा में पाते हैं | अगर हम समाज की सोचते हैं तो परिवार की अपेक्षाएं अधूरी रह जाती हैं .............. और अगर इसके विपरीत अपने परिवार को अपनी प्राथमिकता बनाते हैं ,तब सामाजिक हालात आज जैसे हो जाते हैं जिसमें एक वृद्ध व्यक्ति सियासत का खिलौना बन जाता है ! 

इन परिस्थितियों में भी हम कल्पना करते हैं कि कोई जादुई जिन्न प्रगट हो जाएगा और क्षण भर में इतनी विषम समस्या का समाधान कर देगा | सबकी जवाबदेही तय करते हुए हम सबसे बड़ी बात भूल जाते हैं कि हम खुद को कितना और किसके प्रति जवाबदेह मानते हैं ! जब हम समूह में गांधी जी ,जयप्रकाश नारायण जी और अब अन्ना जी की नीतियों की समीक्षा करतें है ,उस समय सब सिर्फ फलसफा  बखानते हैं | जब व्यवहारिक रूप में उन बातों को अपनाने का समय आता है ,तब पल भर भी नहीं लगाते है उन आदर्शों को छोड़ने में | 

अन्ना जी का मैं भी पूर्णत: समर्थन करती हूँ ... बस इसके साथ एक आश्वासन खुद को भी देना चाहती हूँ कि भ्रष्टाचार का विरोध सिर्फ इस मोर्चे पर ही न करके दैनिक जीवन में भी करूं | अगर हम नारे लगाते हैं तो एक बार खुद से भी पूछें कि क्या हमारा आचरण भ्रष्ट तो नहीं है | जिस भी संस्था में हैं और जैसे भी पद पर हैं अगर पूरी ईमानदारी से अपने दायित्वों का पालन करें | अगर नीतियों के क्रियान्वयन में कहीं लचीले भी होते हैं ,तो वो किसी व्यक्ति विशेष के हित में न होकर समाज के हित में हो | जितने भी 'कर' हमें देने हो, सब दें | अगर हर व्यक्ति इतना सा अपने व्यक्तिगत स्तर पर कर ले तो शायद किसी भी अराजकता से समाज का बचाव हो सकता है | 

अगर हम चाहते हैं कि सडकें समतल हों तो हमारा भी ये दायित्व है कि सडकों को किसी प्रकार क्षतिग्रस्त न करें |घर हमारा बनता है पर सरिया कटवाने का काम सड़क पर ही करवाते हैं | सड़क खराब  होने पर अपने घर के सामने खड़े हो कर सम्बन्धित विभाग का तर्पण कर देतें हैं | अगर घरों के सामने नाली नहीं बनवायेंगे और घर के सामने की जगह ऊंची करवा देंगे तो बरसात का पानी जमा होगा ही ,जिसको साफ़ कर पाना दुनिया की किसी भी नगरपालिका के लिए सम्भव ही नहीं है | घर में बिजली का इस्तेमाल बेदर्दी से करेंगे और बिलआने पर विभाग की ऐसी तैसी करने को तैयार हैं | अरे! विभाग वाले तो आपके घर में बिजली का इस्तेमाल करते नहीं हैं | अगर स्विच बंद करना याद रखें, तो बिल भी कम आयेगा और किसी दूसरे को कटौती का सामना भी नहीं करना पड़ेगा | बिल जमा करने के समय, बिना धनराशि  कम करवाए, जमा करना कितने लोग चाहते हैं ! अगर समय पर बकाया भुगतान हो जाए तो विभाग भी व्यस्थित रूप से कार्य कर पायेगा | ये तो कुछ उदाहरण हैं ,हम अगर खुद के प्रति जवाबदेही तय कर लें तब , किसी भी क़ानून की जरूरत नहीं पड़ेगी और न ही किसी को इस त्रासद स्थिति का सामना करना पड़ेगा | आज हम अन्ना जी को समर्थन देने के नाम पर ,उनको कष्ट उठाते देख रहे हैं | ये कैसा समर्थन है .......... 

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

ईश्वर का आशीष ....."अनिमेष "



आज ,२५ अगस्त ,की तारीख हमारे लिए बहुत ख़ास है | इसी तारीख पर ईश्वर ने हमें अपने आशीष स्वरूप हमारा प्यारा सा बेटा "अनिमेष " दिया | इस दिन से जुड़ी इतनी सारी यादें जैसे आँखमिचौली करती सी सब तरफ से हम पर छा सी गयी हैं | हरतालिका-तीज व्रत के दो दिन बाद ऋषि-पंचमी को अनिमेष का जन्म हुआ था |


पूरा परिवार नई पीढ़ी के इस नन्हे सदस्य के  स्वागत में खुशियों में सराबोर था | पर कहीं हम सब डरे हुए भी थे | अनिमेष का जन्म उसके आठवें महीने में हुआ था इसलिए कुछ दिक्कतें भी थीं , डाक्टर ने बहुत ढेर सारी हिदायतों के साथ हमें (हम दोनों और अनिमेष की दादी माँ ),घर जाने दिया | इन्फेक्शन का भी डर था  | बेटे के जन्म के प्रथम दो वर्ष हमने जैसे उसे पलकों तले छुपा कर रखा था | 

अनिमेष को हम ने हमेशा सच बोलना ही सिखाया | कई बार उसकी इस आदत की वजह से ऐसी मजेदार परिस्थितियाँ बन जातीं थीं कि उसका शिकार भी मजे लेता था | एक बार उसके पापा के मित्र घर आये ,जनाब पहले तो दूर से देखते रहे | फिर बाकायदा उस मित्र की गोद में बैठ गए और उनका चेहरा पकड़ कर बोले "अंकल आप जल्दी मर जाओगे " | हम सब चौंक गये और उसको डांटा तो मुस्कराते हुए बोला " मम्मी आप ने ही तो कहा था सिगरेट पीने से कैंसर हो जाता है ,अंकल इतनी सिगरेट पी रहें हैं तो अंकल को कैंसर हो जाएगा और वो मर जायेंगे "| इस का एक फायदा हमें भी हुआ कि उन मित्र ने उस दिन के बाद हमारे घर पर धूम्रपान कभी नहीं किया |

अनिमेष का इकलौता शौक है उसका क्रिकेट का खेल - देखना भी और खेलना भी | टी.वी.के चैनल बदलते हुए कहीं गेंद की झलक भी मिल जाती तो बस वहीं जम जाता | अपनी पढाई के प्रति कभी लापरवाह नहीं होता था और मस्ती - शैतानियाँ भी बहुत करता | उसके दोस्त भी बहुत सारे थे .... अभी भी हैं :)) 

बेटा तो बहुत अच्छा है ही अनिमेष ,साथ में बड़ा भाई भी उतना ही अच्छा है | अभिषेक ,हमारा छोटा बेटा ,को बहुत सी बातें ,मस्ती करते हुए ही सिखा देता है | हास्टल में भी अभिभावक जैसे ही ध्यान रखता है | ये दोनो भाई हमारे जीवन के बहुत मजबूत आधार-स्तम्भ हैं | 

अभी वो आई. आई.टी. कानपुर में बी.टेक. तृतीय वर्ष में है | वहाँ भी वो अपनी आदत के अनुसार पढ़ाई और मस्ती दोनों ही कर रहा है |

 आज  अपने दुलारे बच्चे के लिए बस यही दुआ है कि उसके मन का बच्चा ताउम्र उसके साथ रहे.......दुनिया में जितनी भी खुशियाँ ,सफलता सुख हो सब उसको मिले ...चश्मे-बद-दूर  !!!

रविवार, 21 अगस्त 2011

भ्रष्टाचार .........रक्तबीज ...........



आजकल हर जगह सिर्फ एक ही विषय है चर्चा के लिए -भ्रष्टाचार ! ये ऐसा मुद्दा बन गया है कि इसके बारे में बहस करने वाले हर वर्ग के होते हैं | वो छोटे बच्चे भी होते हैं और युवा भी ,आम गृहस्थ भी और उत्तरदायित्वों को पूरा कर चुके वयोवृद्ध भी | मीडिया भी अपने दोनों रूपों में ,प्रिंट और दृश्य ,में इसको निरंतर चर्चा में बनाए हुए है | 

भ्रष्टाचार को अगर शाब्दिक रूप से समझे तो ये मात्र भ्रष्ट आचरण है  | समस्या ये है कि भ्रष्ट है क्या ? आचरण तो किसी का अपना व्यक्तित्त्व अथवा सोच को प्रतिरूप होता है | हर व्यक्ति का आचरण और विचार एक जैसा तो कभी हो ही नहीं सकता | तब क्या हम हर दूसरे व्यक्ति को भ्रष्ट कहें और समझें ? ऐसे तो सर्वत्र अराजकता व्याप जायेगी और किसी भी निश्चित हल तक तो हम कभी पहुँच ही नहीं पायेंगे और शायद आदिम-युग में वापस चले जायेंगे | 

भ्रष्टाचार इतना भयावना बन गया है कि उसको नए परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है | मेरे विचार से अगर हमें सही व्यक्ति से सही काम करवाने में अगर उस व्यक्ति को तथाकथित रिश्वत के द्वारा उपकृत करना पड़ता है ,तब उसके कृत्य को भ्रष्टाचार की संज्ञा देंगे | इस पातक में हम तब बराबर के गुनाहगार हैं जब हम अपने सही काम को अनियमित तरीके से करना चाहते हैं | हम किसी बिल का भुगतान करना चाहतें हैं पर हम पहले समय की कमी का रोना रोते हैं ,फिर अंतिम दिन लाचार से पहुँचते हैं और चाहते हैं कि जल्दी से सबसे पहले हमारा काम हो जाए | इस प्रक्रिया में परिचिय खोजते सही (?) स्थान पर पहुंच जाते हैं और कुछ ही पलों में अतिरिक्त भुगतान कर के विजयी भाव लिए चल देतें हैं | अब ऐसी परिस्थितियों में गलती व्यस्था की न होकर हमारी होती है | अगर हम अतिरिक्त भुगतान कर सकतें हैं तो किसी बेरोजगार से मदद लेकर उस को वही धन ,उसके पारिश्रमिक के रूप में दे कर बेरोजगारी की समस्या के समाधान में अपना छोटा सा योगदान दे सकतें हैं | अगर कोई कार्यालय रिश्वत न देने पर नियमानुसार काम न करके हमें बार-बार बुलाता है ,तब भी हम उस युवा का सहयोग ले कर उसको भी सम्मानपूर्वक जीने का अवसर देने में सहयोगी बन सकते हैं | अगर इस दिशा में सोचें तो हम अपने एक ही आचरण के द्वारा दो समस्याओं का समाधान कर पायेंगे और किये जा रहे सुधारों को संजो सकतें हैं |

भ्रष्टाचार की भयावहता को हम सिर्फ उस समय ही क्यों समझते हैं ,जब हम उसका शिकार बनाते हैं ? जब भी हमें अपने दायित्वों के निर्वहन करना होता है तब बहाने बना कर घरों में दुबक जाते हैं | चुनाव के समय ,कार्यालयों में अवकाश होने पर भी अपने मताधिकार का प्रयोग न करना अपना राजसी अधिकार समझते हैं | मत न देने का ही परिणाम है ,गलत व्यक्तियों का सर्वोच्च सत्ता बन जाना | जब हम सही व्यक्तियों का चुनाव ही नहीं करेंगे तब चुने हुए भ्रष्ट से सदाचरण की अपेक्षा करना दिवा-स्वप्न ही बने रहेंगे | आज हम सब भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम का हिस्सा बनना चाहते हैं पर अपने हिस्से का भ्रष्टाचार करके | हमारा यही आचरण ही इस रक्तबीज के  नष्ट न होने का कारण है !!!
   
    

शनिवार, 20 अगस्त 2011

अब तो चले ही जाओ भई प्यारे भ्रष्टाचार !!!



ये कैसी शर-शय्या है 
अब तक न बदली है !
तब भी अपनों ने ही 
धराशायी किया था ,
अब भी अपनों के ही  
हाथों में थमी तीर-कमान है !
तब कौरव शत थे और 
पांडव थे सिर्फ पांच ,
अब फर्क इतना आया 
कौरव हो गए हैं कम ,
सत्यार्थी की संख्या अधिक है !
गलत सिर्फ व्यक्ति का 
गलत होता चुनाव है ,
संसद हो या कोई दरबार
नीति-नियंताओं के 
मन-मस्तिष्क में पड़ चुकी है दरार !
जब पनपे अविचारे विचार
ऐसा ही होने लगता है ,
एक का आचरण 
दूसरे को भ्रष्ट लगता है 
ये तो अपना आईना कमाल करता है !
जब जनहित में सोचा 
तभी सदाचरण होता ,
अल्पजन का सोचा
तभी भ्रष्ट होता गया
अब तो चले ही जाओ भई प्यारे भ्रष्टाचार !!!
                                                 -निवेदिता  

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

क्यों करें तिरस्कार , इस प्यारे अन्धकार का !!!



क्यों करें तिरस्कार ,
इस प्यारे अन्धकार का !
कभी सोच कर तो देखो ,
न हो अन्धकार कहीं 
प्रकाश की कामना कौन करे !
अन्धकार भी कभी कहाँ 
अकेला ही चला आता है ,
साथ अपने चाँद-तारों की 
सजी झिलमिलाहट बटोर लाता है ! 
इस अँधेरे ने यूँ ही 
बरबस कुछ पल को सही, 
श्रांत-क्लांत चकित-भ्रमित
व्यथित व्याकुलता को विश्राम दिया !

इन अंधियारे लम्हों ने ,

कालिमा भरे पलायन ने 
कंपकपाती लपट से प्रेरित  
कितना कुछ मंथन को विवश किया !
आज इस अनदिखे 
चमकते अंधियारे के ,
चिरविदा की बहुप्रतीक्षित वेला में  
अपने श्रद्धा-सुमन सजायें 
तिरस्कार छोड़ ,दुलरा कर विदा-गान गायें !
                                                          -निवेदिता 
   
  

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

शिखण्डी .................

जरा अपनी कल्पनाओं के अश्वों की वल्गा थाम ,उस दृश्य की कल्पना करें जहाँ हस्तिनापुर के अभिमान  ,प्रतिज्ञा को परिभाषित करने वाले -शांतनु पुत्र भीष्म अपनी शर-शय्या पर सूर्य के उत्तरायण हो जाने के लिए प्रतीक्षारत हैं और उनके सामने क्लान्तमना शिखन्डी ..... दोनों ही संतापित मन:स्थिति में ! भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के फलस्वरूप खुद अपनी न्याय-तुला पर अपना दोष महसूस करते और शिखन्डी अपनी वंचनाओं का उत्तरदायी उस युग-पुरुष  को पाते हुए भी उसको मिलने वाले दंड को कुछ अधिक ही कठोर समझते हुए | इस पूरे परिप्रेक्ष्य में पहले शिखन्डी को जानते हैं |

सत्यवती  और शांतनु के पुत्र विचित्रवीर्य से विवाह के लिए ,भीष्म ने काशीराज की तीनों कन्याओं अम्बा ,अम्बिका और अम्बालिका को उनके स्वयंवर-स्थल से हरण कर लिया था और अपने राज्य हस्तिनापुर ले आये |जब तीनों बहनों को विचित्रवीर्य से विवाह करवाने के लिए ले जाया जा रहा था ,तब अम्बा ,काशीराज की सबसे बड़ी पुत्री ने भीष्म से सौभ-नरेश शाल्व के प्रति अपने अनुराग को स्वीकार किया | भीष्म ने उसकी इच्छा का मान रखा और ससम्मान अम्बा को शाल्व के पास भेजा |परन्तु शाल्व ने इस रिश्ते को अस्वीकार कर दिया |उसका तर्क था कि अन्य राजाओं के साथ भीष्म ने उसको भी हरा दिया था ....... अब अम्बा से विवाह एक तरह से विजयी का विजित को दिया गया दान है जो उसको कभी भी स्वीकार्य नहीं होगा |निराश अम्बा वापस हस्तिनापुर लौट आयी |उसने अपने इस अस्वीकारे जाने के अपमान का कारण भीष्म को माना और उससे विवाह करना चाहा |भीष्म अविवाहित रहने के लिए पहले से ही प्रतिज्ञाबद्ध थे ,अत: पुन: शाल्व के पास अम्बा को भेजा |पहले के समान ही फिर अस्वीकृत होने पर ,अम्बा ने अपनी प्रतिष्ठा के इस प्रकार उपहासित होने पर इसका कारण भीष्म को माना और प्रतिशोध लेने के लिए संकल्परत हो गयी |

 अम्बा प्रतिशोध लेने की अदम्य लालसा लिए भीष्म के गुरु परशुराम की शरण में गयी |अपने प्रिय शिष्य के इस कार्य से कुपित हो कर परशुराम हस्तिनापुर पहुँचे |गुरु के इतना क्रोधित होने पर भी बिना संयम खोये हुए ,भीष्म ने अपने प्रतिज्ञाबद्ध होने की मजबूरी बतायी |परशुराम इससे संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिए चुनौती दी |परशुराम और भीष्म के मध्य हुए इस युद्ध को रोकने के लिए अंतत: गंगा को विकराल रूप ले कर दोनों के बीच में आना पड़ा |इस तरह युद्ध का कोई भी निर्णय न हो पाने से व्यथित हो कर परशुराम ने अम्बा को कुछ और उपाय करने की सलाह दी |अम्बा का तो अभीष्ट ही था कैसे भी भीष्म का संहार करना ,अत: वो अन्य ऋषियों के पास गयी |सहमति तो सबने ही दी परन्तु सहायता के नाम पर खुद को असमर्थ पाया |इस पूरी प्रक्रिया में ,भीष्म से असंतुष्ट कई छोटे राजा और ऋषि अम्बा के पक्ष में संगठित हो गए और भीष्म के विरुद्ध एक आक्रोशपूर्ण वातावरण बन गया |जन-समर्थन तलाशती अम्बा ,विभिन्न योग-साधनाएं करती हुई रूद्र का आशीष भी पा गयी और उसने अपना अस्तित्व अग्नि में समाहित कर दिया |पांचाल नरेश द्रुपद को शिव का आशीष मिला कि उनके घर में एक कन्या का जन्म होगा जो कालान्तर में पुरुष रूप पा लेगी |अम्बा ने द्रुपद के घर में शिव के इसी आशीष के रूप में जन्म लिया |द्रुपद ने कन्या की जगह पुत्र का होना ही बताया और नाम रखा शिखन्डी |शिखन्डी ने एक राजपुत्र के लिए उपयोगी राजनीति ,रणनीति ,कूटनीति इत्यादि सभी विधाओं में प्रवीणता प्राप्त की |


समयानुसार ,द्रुपद ने शिखन्डी का विवाह दशार्ण-नरेश हिरण्यवर्मा की बेटी से कर दिया |विवाहोपरांत  शिखन्डी ने असहज स्थितियों में गृह-त्याग कर वन की शरण ली |वन में भटकते हुए शिखन्डी ,वन के रक्षक स्थूणाकर्ण से मिला ,जो शल्य-क्रिया में निपुण था |शिखन्डी की समस्या से अवगत होने पर उस यक्ष ने शल्य-क्रिया के द्वारा उसको पुरुष रूप दिया |उस के पुरुष रूप में वापस आ जाने से पांचाल और दशार्ण के बीच होने वाला युद्ध रुक गया |


महाभारत का युद्ध होने पर ,शिखन्डी द्रुपद के साथ पाण्डवों के पक्ष में लड़ा |स्वयं भीष्म ने कौरवों की सेना का नेतृत्व किया |भीष्म के संहार से त्रस्त हो पाण्डव उन के अंत का तरीका जानने पहुँचे |भीष्म ने कहा कि वो भीत ,शरणागत ,संतानहीन ,विकलांग ,नपुंसक ,स्त्री ,स्त्री-पूर्व पुरुष ,पुरुष भाव को प्राप्त स्त्री और स्त्री शरीरी पुरुष पर हथियार न उठाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं |भीष्म के इस संकेत को कृष्ण समझ गए और उन्होंने स्त्री-शरीरी पुरुष शिखन्डी ,जो पूर्व जन्म में अम्बा थी ,को अर्जुन के सामने बैठा दिया |शिखन्डी को देख भीष्म ने अस्त्र-शस्त्र नीचे रख दिया |शिखन्डी के पीछे से अर्जुन ने भीष्म पर बाणों की वर्षा कर दी | इस बाण-वर्षा की परिणति भीष्म की शर-शय्या थी |


भीष्म के हत होने पर सब मिलने गए ,परन्तु शिखन्डी रूपिणी अम्बा उन का सामना करने का साहस न जुटा पायी |वो स्वयं को अपराधी अनुभव करती सच्चाई समझ गयी कि वो भीष्म से असंतुष्ट राजाओं की राजनैतिक प्रतिशोध का साधन बन गयी | जब वो बाद में ,अपराधी भाव से भीष्म के सामने गयी ,तब भीष्म ने उस की शंका का समाधान करते हुए कहा कि वो अपराधी नहीं है |शरीर-अवसान तो प्रकृति का सबसे बड़ा सच है इसका कारण अथवा माध्यम रोग-व्याधि-युद्ध-हत्या कुछ भी हो सकता है |सच देखा जाए तो एक अकिंचन स्त्री को अनजाने अनचाहे दिए गए कष्टों का प्रतिफल ही थी वो शर-शय्या |

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

मेरे भैया मेरे चन्दा मेरे अनमोल रतन .......



जब भी साँसे व्याकुल होतीं 
जीवन - ज्योति डगमगाती
तुरंत थाम कलाई को ,तलाशा 
डूबती कंपकपाती नाड़ी को.....
जीवन का पर्याय बनी ,इस 
नाड़ी पर ही ,मेरे भैया बांधा 
इक नाजुक सा धागा सूत का
नाम दिया दुलारा सा राखी का
जब हम छोटे थे तब ही ज्यादा 
अच्छे थे .... 
हाथों में राखी से सजी थाली थी 
सामने भाइयों की खिली कलाई थी
खिलखिलाती किलकारियों से 
महकती घर की अमराई थी
अब भी पल बड़े दुलारे हैं ...
बस जीवन के दायित्व बहुत सारे हैं
बदला कुछ नहीं ,न वो धागा 
न हीं अशेष मंगलकामनाएँ.....
घर हुए दूर तो क्या हुआ 
दिल तो अभी भी आस-पास हैं
टीका कर पाऊँ या नहीं बस 
कलाइयाँ चमकती रहें और 
माथे खुशियों से दमकते रहें .....
                           **************** मेरे भाइयों के लिए राखी ************
                                                                                                 -निवेदिता 


बुधवार, 10 अगस्त 2011

सूखे आँसुओं की तासीर ........



सूखे आँसुओं की तासीर 
आँखों से मन तक 
बहती चली जाती हैं 
सूखी तो आँखें रहती 
मन उलझता जाता है
यादों के ...वादों के ....
बादल घिरते तो बहुत हैं
बिन बरसे तरस कर 
भरे-भरे चले जातें हैं
वो रेत सरीखी 
छोटी-छोटी बातें 
पहाड़ सी भारी हो
मन में बसी रह  कर
जीना दुश्वार कर जाती
गलत न वो बातें हैं
न ही यादें .... और 
न वो रूखी-सूखी आँखें
गलत है सिर्फ मन का 
बंजारा न हो पाना ........
                 -निवेदिता  

रविवार, 7 अगस्त 2011

मन बावरा ........


मन का रीतापन 
नयनों में बस गया 
शायद इसीलिये 
अश्रुओं ने इक 
बसेरा नया ढूँढ लिया !
रातों की कालिमा 
काजल सी नयनों में 
सपना बन छा गयी ,
टूटते तारों से सपने ,
चुभन दे जाते 
मन के छालों सा 
नित उगते 
सूरज की लाली 
दावानल बन सब 
भस्मीभूत कर जाती !
तुला की धुरी सा   
लचकता मन 
संतुलन साधने में 
डूबता गया 
आशाओं उम्मीदों के 
बाट रखे मन बावरा 
डगमगाता रहा ........
               -निवेदिता 

शनिवार, 6 अगस्त 2011

ये कैसा पल ......


एक पल में ही जीवन कैसे-कैसे रूप बदल व्यवस्था से बिखराव तक पहुँच जाता है ,पता ही नहीं चलता |इसमें उस पल का दोष है या नियति का सब कुछ अबूझा सा रह जाता है |कब तन या मन  के किस कोने से कोई रोग अकारण दस्तक दे जाता है और तन ही नहीं मन भी उसकी गिरफ्त में आ जाता है |शायद तब ही दो चेहरों की जरूरत पड़ती है |एक चेहरा हम अक्सर एक नक़ाब की तरह ओढ़े रहतें हैं जब हम तथाकथित रूप से सामाजिक परिपाटियों का निर्वहन करते रहतें हैं |उस पल में हमारा पास अपना कुछ भी निज नहीं रहता |न तो हम नितांत व्यक्तिगत कुछ सोच सकते हैं और न ही कुछ कर सकते हैं |सब एकदम बनावटी ,कितना नकली होता है |जैसे लगता है कि दूसरों के साथ खुद को भी बहला रहें हो |दूसरा चेहरा सिर्फ अपने लिए होता है ,जब आप एकदम अकेले हों अपने ही साथ और दिल यही करे कि खुद से ही बातें करें ,खुद को ही समझें और समझाएं |ऐसे समय में इतनी बातें और यादें घेर लेतीं हैं कि मन कमज़ोर सा महसूस होता है |अपनी परेशानियां भूल कर ,अपने न रहने पर ,दूसरों को हो सकने वाली परेशानियों के समाधान में उलझा और डरा मन उस पल को एक व्यवस्था देने में लग जाता है |बहुत संभावना ये भी रहती है कि शायद तब उन अपनों को वो स्थितियाँ कुछ ख़ास परेशान न करें |पर शायद ऐसा सोचना अपने अहं की संतुष्टि में ही सहायक हो रहा हो |परन्तु जब खुद व्यथित होते हुए भी मन कुछ ऐसा विचार करता हो तब उस पल की सोच को उसके अपने अहं की संतुष्टि कहना शायद उस पल का सच नहीं हो सकता |बस घबराया मन यही कामना करता है कि ऐसा पल किसी के भी जीवन में न जा सके ......    

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

रावण.......



अगर कभी नकारात्मकता में कुछ सकारात्मक खोजने का प्रयास किया जाए , तब हम  को और कुछ मिले अथवा नहीं ,परन्तु उस नकारात्मकता का स्रोत संभवत: मिल ही जाएगा |इस सोच के ही साथ आज मैंने  रावण के किरदार को चुना | आज एक दूसरे नज़रिए से इस चरित्र को देखते हैं ......

पहले सिर्फ दो समुदाय थे - पहला गौरवर्णी वर्ग जो देवता कहलाते थे और दूसरा  श्यामवर्णी वर्ग जो असुर अथवा राक्षस कहलाता था | देवता शासन करते थे | समस्या तब शुरू हुई जब असुरों ने  देवों के विरोध  में स्वर बुलंद किये | इस विरोध और संघर्ष के मध्य असुरों में कई दल बन गए | इस समरकाल में ही एक  अनाथ नवजातक के भविष्य का आकलन कर के ज्योतिषी ने उस  को एक नए राजवंश  का प्रतिष्ठाता  बताया और उसकी सुरक्षा की दृष्टि  से , पालने  के  लिए  उसको नि:संतान सरदार शिव और  उसकी पत्नी पार्वती को दिया | इस बच्चे का नाम 'सुकेश' रखा गया | शिव देवों का परम अनुयायी था ,पर सुकेश उन का आलोचक था और स्वतन्त्र राक्षस भूमि चाहता था |सुकेश के प्रेरित करने पर शिव ने ब्रह्मा से ऐसे स्थान की कामना की | ब्रह्मा ने दक्षिणारण्य ,जो कि खूंखार जंगली जानवरों से भरा अविकसित दुर्गम पहाणी  क्षेत्र था ,में किसी स्थान के चुनाव के लिए कहा | शिव उस स्थान के सुझाव पर निराश हुए ,पर सुकेश ने देवों की दृष्टि से दूर उस स्थान पर रक्षसाम्राज्य  की नीवं रखी  और विश्वकर्मा ने अपने निर्माण कौशल का  परिचय देते हुए उस निर्जन स्थान को स्वर्ण-नगरी बना दिया | सुकेश के तीन पुत्र थे - माली ,माल्यवान और सुमाली | सुकेश की मृत्यु  के  बाद  राजा बनने  पर माली ने , सम्पूर्ण  ब्रह्मावर्त  पर  विजय  की कामना से देवभूमि पर आक्रमण किया और विजयी भी हुआ | परन्तु देवताओं ने छलपूर्वक उसको मार दिया और लंका पर शासन करने के लिए कुबेर को नियुक्त किया |

इस पूरी आपाधापी  में सुमाली परिवार सहित वन में छिप गया और प्रतिशोध के लिए प्रयासरत रहा | सुमाली ज्योतिषशास्त्र का अच्छा ज्ञाता था | उसने अपनी पुत्री कैकसी के भविष्य की गणना की जिसके अनुसार कैकसी का पुत्र राजगुणों का अधिकारी और लंका का मुक्तिदाता था | उचित वर की तलाश  और अन्य राज्यों की व्यवस्था का आकलन करने के लिए भटकते हुए  गोकर्ण आश्रम पहुँचा | वहाँ उसकी मुलाकात  पुलस्त्य और उसके पुत्र विश्रवा से हुई और कैकसी और विश्रवा का विवाह संपन्न हुआ और रावण का जन्म हुआ |

रावण  में  बाहुबल , बुद्धिबल ,  रणनीति ,  कूटनीति जैसे  गुणों के साथ - साथ स्नेह , सहानुभूति सरीखे  इंसानियत के  गुण  भी प्रचुर मात्रा थे | एक तरह से वो लंकावासियों के लिए विश्वास और भरोसे का  भी प्रतीक बन गया | कुबेर ने  लंका पर  शासन बनाए रखने के लिए जनता का भरपूर शोषण किया | कुबेर के  दु:शासन से त्रस्त लंका के प्रजा की पीड़ा  को  दूर  करने के लिए रावण ने प्रजा  के  खोये   आत्मविश्वास  को  जागृत किया  और  उन्हें संगठित  किया और कुबेर  के  प्रति  प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष  संग्राम  शुरू किया | उसने असुर दल को एकसूत्र में  बाँधने के  लिए  अपने विवाह का आयोजन सुविचारित  रूप से किया | रावण ने  ऋक्षविल  महानगर  के  अधीक्षक  मय दानव और अप्सरा हेमा की कन्या मंदोदरी  का  चुनाव  किया | हेमा  के  सौन्दर्य से आकृष्ट हो कर ,छलपूर्वक  इंद्र  ने उस पर बलात  अपहरण कर  लिया | मय  इंद्र  से  प्रतिशोध  न  ले  पाया और अपमान की आग में जलते हुए किसी सामर्थ्यवान की खोज में लग गया | आशा की किरण के रूप में उसको रावण मिला और मय  ने अपनी बेटी  मंदोदरी का विवाह रावण से कर दिया | इस प्रकार रावण और भी शक्तिसंपन्न होता गया |

कुबेर सत्ता के मद में  नैतिक  अध:पतन की  तरफ कई  कदम  बढ़ा चुका था  और  राज्य  के  प्रति उदासीन  था | अम्बरीश , कुबेर  के  गुप्तचर , से  रावण  की  निरंतर  बढ़ती  शक्ति से  चिंतित  हो कर आहुति ( कुबेर की  पत्नी ) ने  कुबेर  को  सचेत करना चाहा | पर तब तक रावण के पास इतनी सामर्थ्य हो गयी थी कि कुबेर खुद को असहाय पा रहा था | रावण का सन्देश ले  जाने  पर  प्रहस्त के समक्ष ,कुबेर ने लंका पर अपना अधिकार त्याग दिया और रावण को लंका नरेश की मान्यता मिल गयी | अन्य  राज्यों  से  निकटता  बनाए  रखने के  लिए  उसने अपने भाइयों और बहन के वैवाहिक सम्बन्ध करवाए |

अब रावण का  जीवन  कुछ  व्यवस्थित  हो  चला  था | उस  ने  एक  वाद्य यंत्र  सप्त - स्वरा का भी अन्वेषण  किया | वक़्त  के  इन  तमाम  थपेड़ों  ने  रावण  को  कुशल  राजनेता  , प्रकांड  विद्वान और मानव मन का कुशल चितेरा बना दिया था | रावण को इंद्र द्वारा किया गया हेमा का अपमान कचोटता था इसलिए उसने इंद्र को भी अपनी रणनीति के द्वारा परास्त किया |

रावण का दशानन रूप उसकी विद्वता और गुमान - दोनों को ही दर्शाता है | अभी तक रावण सबसे प्रशंसित होता था | क्रमश: ये प्रशंसा  उसको  अभिमानी  और  अत्याचारी  बनाती  गयी  और उस रावण के उस रूप का विस्तार हुआ जिसको हम सब जानते हैं राम - रावण युद्ध के द्वारा |