रविवार, 29 मई 2011

सूर्य पुत्र या सूत पुत्र "कर्ण"


आज सूर्य की ,
धरा पर झांकने को तत्पर,किरणों से 
मैं सूर्यपुत्र कुछ कहना  चाहता हूँ 
मैंने तो कभी न पाली किसी के प्रति 
अपने मन में कोई दुर्भावना ,फिर -
मुझे मिली किस अपराध की सजा !
सूर्य पुत्र हो कर भी सूत पुत्र माना गया 
जीवन भर छला ही गया .................
कभी माँ ,कभी पिता और कभी 
अनुजों का ,अरे हाँ ! 
अनुज वधू का भी दोषी बना 
ये शायद थी मेरे अंतस की ही आँच
शैशव काल से ही निडर 
हर डर को डराता रहा !
कभी वसु ,कभी वसुषेण तो 
कभी अंगराज कहलाया 
पर ये सूत पुत्र का सम्बोधन 
तपती लू सा जलाता यूँ ही 
पीछा करता रहा .....
 सत्यसेन की भगिनी ,
वृषाली का अनुपम साहचर्य मिला 
पर द्रौपदी की स्वयंवर सभा में 
यूँ कुंठित हुआ............
कवच कुंडल से वंचित हुआ ,तब 
माँ के आँचल की पहचान मिली !
अगर मित्र घाती होता ,तभी  
कृष्ण -पांडवों का बंधुत्व मिलता ! 
दुर्योधन ने बंधुत्व निभाया ,पर  
पांडवों से अपनी ढ़ाल बनाया......
जीवन के हर पल ऐसे ही छला गया ...
आज अपना अंत भी कुछ ऐसे ही पाया 
छलिया कृष्ण के छल से .........
मानव अंगों और रुधिर के दलदल में,
जीवन चक्र सा फंस गया ,
मेरा रथ चक्र.........................
आहत हुआ अपने ही अनुज से 
जब था मैं एकदम नि:शस्त्र...
छोटों से क्या शिकायत करना ,
जब ज्येष्ठों ने अस्वीकार दिया !
पर सूर्य पुत्र कहलाया हूँ ,तब 
तुम्हे कुछ तो कहना ही होगा ...
जब इंद्र ने मांग कवच-कुंडल 
अर्जुन के प्राणों को सुरक्षित किया 
तब भी क्यों न जाग पाया 
तुम में पुत्र प्रेम ..............
  
                                 --निवेदिता 

      

शुक्रवार, 27 मई 2011

अरे ओ मन्दोदरी ...............

 अरे ओ मंदोदरी ,
कैसी है तू नारी !
प्रिय के उर में भी 
तू तो  ना बस पायी ,
इतिहास में भी 
कहाँ स्थान बना पायी,
मेनका सी रूपसी और 
मय दानव की पुत्री,
तेरे काम न रूप आया ,
न काम आयी मय की माया ,
सच बोलूँ तेरा जीवन ,बस 
कटा तलवार की तीखी धार पर ,
रावण सा वीर-विद्वान वर ,
सही चुनाव था तेरे मात-पिता का ,
पर मन को कब  कौन भाँप पाया ,
विद्वता के आवरण में थी ,
अभिमान की -गुमान की  
मदांधता की काली छाया....
पर सच पूछो तो ,तू 
इतनी भी नहीं असहाय 
ये तेरी ही छाया थी  
जिसने अशोक वन में 
सीता को दी सुरक्षित छाँव ,
अभिमानी रावण को भी बाँध दिया 
पटरानी की गहन गरिमा से ,
मर्यादा पुरुषोत्तम की पत्नी बन भी 
सीता ने पाया कई-कई वनवास ,
कहीं पर सीता से है ज्यादा भाग्यवान 
प्रशंसनीय है तू ,जो तन गयी प्राचीर सी ,
रावण का अहं भी न जिसको लांघ पाया !
अमर्यादित को भी मर्यादा में जकड़ा तुमने ,
कहीं पर तू है सीता से ज्यादा भाग्यवान 
कई नारियां आयी रावण के जीवन में 
पर तेरी - राजमहिषी की -
गरिमा को न कभी लांघ पायीं  
सच में मंदोदरी की की हो जिसने भी उपेक्षा ,
पर अंतस तेरा है क्षितिज का सबसे 
चमकदार और सशक्त जाज्वल्यमान  तारा ..........
अभिनन्दन ! हे मंदोदरी तेरा करते अभिनन्दन !!!
                                                       -निवेदिता  





  

बुधवार, 25 मई 2011

एक नाजुक सा ख़याल ...........


एक नाजुक सा ख़याल,
यूँ ही रेशम सा लहरा गया ,
आज चलो थोड़ा ये चलन 
कुछ बदल कर देख लें !
तुम्हारी जगह मैं थाम लूँ
तुम्हारे हाथों को .......
या फिर झाँक लूँ .....तुम्हारी
इन अधमुंदी आँखों में .......
चुरा ले जाऊँ ..........
उस सपनीली छाँव को,
बोलो या न बोलो ....
बस........रम जाऊँ
उन खामोश ........
जज़बातों की आंधी में ............
                                    -निवेदिता 
     

सोमवार, 23 मई 2011

"प्रतिशोध" या "प्रारब्ध"....................


इस दावानल में अग्नि की इन दाहक लपटों से घिरी हुई मैं, अपने अंतिम आसन पर बैठी हूँ !पर सच कहूँ, मुझे तो मंद ,सुरभित ,सुगन्धित ,मलयानिल के मदमस्त झोंकों से घिरी किसी स्वर्गिक उपवन में होने की सी शीतलता मिल रही है | आप को शायद ये अविश्वसनीय लग रहा हो, पर जब अंतरात्मा तक प्रतिशोध की दाहकता से सुलग रही हो ,तब कैसी भी अग्नि जो प्रतिशोध की पूर्णता का आभास कराये, शीतल ही लगती है |आज मैं (एक तथाकथित अबला) एक शक्तिशाली साम्राज्य से अपनी अस्मिता के कुचल दिए जाने का बदला ले पाने में सफल हुई हूँ |
 जब भी अपना पिछ्ला जीवन या कहूँ अपना बचपन याद करती हूँ तो सिर्फ एक चहकती -फुदकती नन्ही सी चिड़िया याद आती है, जो अपनी छोटी सी दुनिया में कलरव करती मग्न रहती है | मैं भी अपने माता -पिता के पास गांधार में सुख के हिंडोलों में झूल रही थी |शिव-भक्ति में लीन मैं जब तक कुछ समझ पाती, एक अहेरी सदृश हस्तिनापुर के युग-पुरुष भीष्म ने अपनी सैन्य शक्ति के बल पर अपने दृष्टिहीन भतीजे धॄतराष्ट्र के संग विवाह-बंधन में जकड़ दिया |एक निर्बल राष्ट्र के अधिपति मेरे पिता राष्ट्र के हित में बंधे मेरे पक्ष में कुछ भी न कर सके और मेरे रंगों भरे चमकते जीवन में एक घना अन्धकार छा गया |
अपनी सास-द्वय अम्बिका और अंबालिका के विरक्ति भरे नियोग के परिणाम -दृष्टिविहीन धृतराष्ट्र और चिर रोगी पाण्डु -से सहम कर ,मैंने ऐसी किसी भी स्थिति को टालने के लिए अपने नेत्रों पर पट्टी बाँध ली | सब ने इसको भी मेरे पतिव्रत धर्म की पराकाष्ठा मानी और मुझे महिमा-मंडित किया ,पर सत्यता तो इस से अलग ही थी |ये तो एक निर्बल नारी का प्रतिकार था ,जो कब कैसे अनायास ही ऐसे प्रतिशोध  में परिवर्तित हो गया  ,पता ही नहीं चला | अपनी अस्मिता ,अपना मान गवाँ कर भी मुझे अपने पति का एकनिष्ठ साथ नहीं मिला |मेरे अतिरिक्त भी मेरे नेत्रहीन पति की नौ अन्य रानियाँ भी थीं |
हमारे शत-पुत्र ,शारीरिक रूप से स्वस्थ होते हुए भी मानसिक विकृति का शिकार थे |सबके प्रति कलुष से भरे ,हर श्रेष्ठ पर अपना ही एकाधिकार समझने वाले बन गए थे,शायद ये मेरे अंतर्मन की कुढ़न का ही दुष्परिणाम था |अनजाने में ही अपने पुत्रों को मैंने भीष्म विरोधी बना दिया ,जो हस्तिनापुर के साथ ही उनके लिए भी घातक हुआ |
मैंने अंतत:हस्तिनापुर ,जिसने मेरे जीवन को अंधकूप बना दिया था ,से प्रतिशोध ले लिया |इस पूरी प्रक्रिया में घायल मैं ही ज्यादा हुई |अपने इतने शक्तिसंपन्न पुत्रों और जामाता की मृत्यु का कारण अनजाने में बन गयी | पाण्डु-पुत्रों और कुंती के प्रति अपने बच्चों की प्रगल्भता पर मैं संतप्त भी हुई हूँ |सम्पूर्ण राज-भवन में कुंती सी संतुलित नारी कोई अन्य नहीं मिली जो सब के प्रति समभाव से स्नेह का निर्झर बहाती थी |मैंने अपनी कई मौतों की पीड़ा भी झेली है |जब-जब द्रौपदी हमारे बच्चों की कुटिलता का शिकार हुई है मैं ने भी उस के साथ ही मरणान्तक पीड़ा भोगी है ,क्योंकि ये वही द्रौपदी थी जिसने हमारे दुर्योधन को भी 'सुयोधन'ही पुकारा और दु:शला भी उसके लिए 'सुशीला' थी |इस को विडम्बना ही कहूंगी कि द्रौपदी और पांडवों के दुर्भाग्य का कारण मेरे कलुष से पालित दुर्योधन था |मेरी दु:शला का पति जयद्रथ ही द्रौपदी के मान भंग के प्रयास का दोषी था |अभिमन्यु के वध में भी अंतिम प्रहार करने वाला भी मेरा जामाता ही था |इतना सब होते हुए भी ,अपने वंश के विनाश का कारण होते हुए भी ,मेरा मन मुझे गलत नहीं मानता क्योंकि माँ के मन को सुख पाने की उम्मीद उसके बच्चों से ही होती है और जब इतनी समर्थ संतान हों तो ये चाहत और भी बढ़ जाती है |
इतने विशाल सत्तासंपन्न राज्य के विनाश के बाद भी ,मेरी अंतरात्मा भीष्म को अभी भी माफ़ नहीं कर पा रही, क्यों कि उन्होंने मुझ को मिले रूद्र के ,शतपुत्रवती  होने के ,वरदान को ही आधार मान कर मेरे जीवन को अंधकारमय बना दिया |अगर मैं किसी के प्रति स्वयं को अपराधी पाती हूँ, तो वो हमारे राजकुल की पुत्रवधुएँ हैं, जिन्हें असमय वैधव्य का सामना करना पड़ा |क्या अब भी मुझ को अपना नाम बताने की आवश्यकता है ?चलिए मैं बता ही देती हूँ --मैं हूँ गांधारी -गांधार राज्य की राज पुत्री ,हस्तिनापुर की महारानी ,धृतराष्ट्र की पत्नी ,दुर्योधन की माँ  ,द्रौपदी-भानुमती जैसी सुशीला नारियों की सास ,अभिमन्यु और लक्ष्मण सरीखे वीरों की दादी और एक प्रवंचिता नारी ...........
 अब सोचती हूँ कि ये मेरा प्रतिशोध था या प्रारब्ध !!            .     

शनिवार, 21 मई 2011

छोटी सी चाहत .........


अबोध नन्हे से  शिशु ,
जैसे चाँद-तारे उग गए अंचल में ,
सोचा दुनिया ही सारी वार दूँ,
अपनी आँखों के चमकते सितारे पर !
रंग-बिरंगे छोटे-बड़े गुब्बारे ,
या गोल-गोल लुढ़कती गेंद ,
ठुमकते कदमों में पहनाऊँ ,
झनकती-चमचमाती झांझर !
थोड़ा सा तो बड़ा हो ले  ,
सजा दूँ अक्षरों की दुनिया ,
अच्छा शिक्षालय अच्छा भविष्य ,
कुछ भी न रह जाए अनदिया !
फिर सोचा उसके मन में तो झाँकू ,
वहां क्या-क्या सपने हैं जग रहे .......
अरे ! इस नन्ही दुनिया की 
चाहत है ये कैसी अनोखी .........
इसे नहीं चाहिए कैसे भी 
खिलौनों का सजीला भण्डार ,
ना ही अक्षरों की रंगीली बरसात ,
ना तो स्नेह ,ना ही बरसता प्यार ,
बस इक छोटी सी है चाह .........
पा जाए हमारा बस अथाह दुलार !
ज़रा सा दुलराना बन जाए संजीवनी ,
हर कठिन कंटकित पथ हो जाए सहज ,
इस दुलार से वो तन जाए - संवर जाए ,
अनुभव कर दुलराती छाँव ,दृढ़ हो जाए ,
दुनियावी सलीके खुद ही साथ हो लेंगे ,
इक नन्हे से पौधे को संवार कर देखो ,
कब वटवृक्ष बन प्रमुदित हो छा जाएगा '
कमज़ोर पड़ते कांपते क़दमों का , 
बड़ा प्यारा मजबूत सहारा बन जाएगा , 
चलो अब से ही सही इनकी चाहत पूरी तो करो ,
बस थोड़ा सा उनको दुलरा तो लो ..........
                                                      -निवेदिता  




बुधवार, 18 मई 2011

कैकेयी -मातॄत्व का एक रूप ये भी .....................


अकसर सोचती हूँ कि सब हमेशा कैकेयी को गलत क्यों बताते हैं ! क्या सच में वो ऐसी दुष्टमना थी ?क्या वाकई उसने राम से किसी पूर्व जन्म का वैर निभाया ? क्या वो इतनी निकृष्ट थी कि उसके अपने बेटे ने भी उसको त्याग दिया ? शायद ये हमारी एकांगी सोच का भी नतीजा हो !जिस मां का मानसिक संतुलन एकदम ही असंतुलित हो गया हो और जो किसी को भी न पहचान पा रही हो ,वो भी अपने बच्चे के लिए एकदम से सजग हो जाती है |इसलिए कैकेयी को एकदम अस्वीकार कर देना शायद उचित नहीं है,आज जरूरत है तो सिर्फ देखने का नजरिया बदलने की |एक प्रयास हम भी कर लेते हैं ....
  ममता के भी कई रूप होते हैं |कभी वो सिर्फ वात्सल्य ,जिसमें बच्चा कभी गलत नहीं दिखता है ,होती है तो कभी संस्कार देती हुई सामाजिकता सिखलाती है और कभी अनुशासन का महत्व समझाती बेहद कठोर हो जाती है |इन तीनों ही रूपों में किसी भी रूप को हम गलत नहीं समझते हैं |राम की तीनों माताएं इन तीनों भावों की एकदम अलग-अलग प्रतिकृति दिखती हैं |कौशल्या का चरित्र जब भी  सामने आता है सिर्फ वात्सल्य से भरी माँ ही नज़र आती है और इस वजह से ही वो थोड़ी कमज़ोर पड़ जाती है जो हर परिस्थिति में किसी भी कटुता से अपने बच्चों को बचाना  चाहती है |सुमित्रा एक सजग और सन्नद्ध माँ का रूप लगी मुझे ,जो अपने पारिवारिक मूल्यों को अपने बच्चों तक पहुंचाने में तत्पर रहती है |बड़े भाई के वन-गमन पर लक्ष्मण को उसका अनुसरण करने को कहती है |बच्चे की सामर्थ्य और रूचि को समझ कर ही लक्ष्मण को भेजा शत्रुघ्न को नहीं |इसी तरह कैकेयी ने अनुशासन की कठोरता दिखाई और दूसरों के कष्ट को समझने की दृष्टि विकसित की |अगर कैकेयी ने राम को वन जाने के लिए मजबूर न किया होता तो राम जन-मन में नहीं बस पाते |वन में ही राम ने सामान्य वर्ग का कष्ट महसूस किया और उसके निराकरण का प्रयास भी किया |उस अवधि में ही राम ने अयोध्या के  परिवेश को शत्रुरहित भी किया |रावण जैसे शक्तिशाली और दुष्टप्रवृत्ति का विनाश करना भी संभव तभी हो पाया जब राम वन की बीहण उलझनों में गए |अगर राम को कैकेयी ने वन न भेजा होता ,तब भी  राम एक आदर्श पुत्र होते ,एक आदर्श शासक होते ऐसे कितने भी विशेषण उन के नाम के साथ जुड़ जाते ,परन्तु राम ऐसे जन-नायक नहीं होते जिस पर रामायण ऐसा ग्रन्थ लिखा जाता जो आज भी पूजित होता है |बेशक उन पर इतिहासकार पुस्तकें लिखते पर वो इतनी कालजयी और पावन न होतीं |अगर कैकेयी ने राम को वन जाने के लिए मजबूर न किया होता तो राम का "मर्यादा पुरुषोत्तम"रूप कहीं भूले से भी देखने को न मिल पाता|वैसे कमियां तो सभी में होती हैं परन्तु अगर इस  परिप्रेक्ष्य में  कैकेयी का आकलन करें तो शायद कुछ संतुलित हो सकेंगे ...................

शनिवार, 14 मई 2011

अनछुए से सपनों की सौगात................



ये क्या ......
ऐसे क्यों 
मांग लिया !
अनछुए से 
सपनों की 
सौगात ......
ये कैसे रिश्ते,
ये कैसे ज़ज्बात !
कर लेते कैसे 
शर्तों  की बात ,
साथ में थोपी 
अग्निपरीक्षा की 
जलती सौगात !
इन रेशमी -अधबुने से 
ख़्वाबों का कोष ,
यही तो निज मेरा है 
इस मंझधार में ,
शमशीर सी धार में 
क्या चुन लूँ ?
अपने अनछुए से सपनों को
या फिर ......
सपनों की हकीकत जैसे तुम को ...
ये दग्ध करते ख्याल 
किस से वंचित हो जाऊँ
किस को वंचित कर जाऊँ 
किस तट जा विराम पाऊँ ...........
                                     -निवेदिता 

  

गुरुवार, 12 मई 2011

हाथों में ले कर हाथ .................

जीवन की ऊष्मा से 
भर जाते मन प्राण,
जब भी लहरा जाते 
यादों की करते झंकार, 
हाथो में ले कर हाथ 
श्वासों से लिखा
तुमने बस प्यार ...........
धूप-छाँव सी बसर 
होती जाती ज़िन्दगी,
कभी तीखी कभी कसैली 
उलझती सुलझन सी, 
पल्लवित सुरभित सुमन सी 
पा कर बादल सी छाँव
जीने काबिल हो जाती है  
ये हसीं ज़िन्दगी .................. 
                                                                                                          -निवेदिता 


सोमवार, 9 मई 2011

मां........

बहुत दिनों पहले एक कहानी पढ़ी थी ,जिस में बच्चों ने अपनी माँ का जन्मदिन मनाया था | उस कहानी में माँ पूरे दिन बच्चों की फरमाइशें पूरी करती रह जाती है और रात में बच्चे खुश हो कर सो जाते हैं कि उन्होंने अपनी माँ का जन्मदिन बहुत अच्छे से मनाया और माँ खुश हो गयी |जब ये पढ़ा था तब उन बच्चों पर तरस और कुछ अंशों में आक्रोश भी हुआ था कि माँ तो पूरे दिन और भी ज्यादा व्यस्त रही ,थक भी गयी | रात में सबके सो जाने पर भी काम ही करती रही...........
पर अब जब तकरीबन ८-१० दिनों से मदर्स-डे की धूम सुन रही हूँ और खुद भी माँ बन गयी हूँ तो उस माँ के सुकून को महसूस कर पा रही हूँ ,जो बच्चों के सुख में ही खुश हो लेती है |आज अपनी माँ के बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि आज अगर वो सशरीर साथमें होती तो शायद अपनी बातें उनसे कह पाती और उनको कुछ समझ पाती ....अब उनके देहांत के बाद ऐसा शून्य छा गया है जो अपूरणीय है |

बेहद सरल और सीधी थीं हमारी माँ |नाराज़ होना तो उनको आता ही नहीं था |हम सारे भाई-बहन (उन्हें कजन्स नहीं कह सकती क्यों कि माँ ने ऐसा कहने ही नहीं दिया)चाहे जितनी शैतानी या कहूं ऊधम कर लें माँ के चेहरे से उनकी मुस्कान कभी ओझल नहीं हो पाती थी |हमारी बड़ी भाभी कभी गुस्सा दिखाती तो माँ हमेशा कहती कि अगर बच्चे शरारतें नहीं करेंगे तो उनका बचपन कैसा !हमारे ताऊजी और ताईजी का शरीरांत जब हुआ पापा पढ़ रहे थे | ताऊ जी के दोनो बच्चे-दीदी और भैया- हमारे पापा और माँ को चाचाजी और चाचीजी कहते थे | माँ ने हम सब से भी पापा को चाचाजी ही कहलवाया कि भैया और दीदी को पराया न लगे |मेरे जन्म के बाद दीदी ने ही मुझसे पापा को पापा कहलवाना शुरू किया |माँ के ऐतराज़ करने पर वो भी माँ-पापा कहने लगी | जब रिश्तों में स्वार्थ दिखता है तब माँ बेहद याद आती हैं ........
जब बहुओं को जलाने और सताने का सुनती हूँ ,तब माँ याद आती हैं जो अपनी बहुओं की लिए कवच सरीखी थी  कोई भी भाभियों को कुछ नहीं कह सकता था |वो हमेशा कहती थीं दूसरे परिवार से आयी हैं इस परिवार की रीति-नीति सीखने में समय लगेगा ही और वो समय उनको देना चाहिए |जब एक सी गलती करने पर मुझको टोकतीं थीं और भाभियों को कुछ नहीं कहती थीं तब मुझे भी माँ गलत लगतीं थीं |मेरी भाभियों के भी आपत्ति करने पर कहतीं थी कि पता नहीं कैसा परिवेश मिले इसलिए इसको सतर्क रखना चाहिए |आज लगता है कि वो पूर्णत:ठीक थीं |पर जब और रिश्तेदार मुझसे काम करवाने को कहते और सतर्क करते कि ऐसा न करने पर बाद में उपहास का कारण बनूंगी ,तब माँ का विश्वास कि समय पर सब सम्हाल लूंगी दृढ़ रहा और मैं भाइयों की बराबरी करते सिर्फ पढ़ती रही |
कभी कोई उनको कुछ कहता तो वो उस टकराव को हँस कर टाल जातीं थीं |हमारे विरोध करने पर वो समझातीं कि कहने वाले की समझ इतनी ही है ,अगर उसे समझ होती तो वो ऐसा न कहता |इतनी सहिष्णुता और समझ वाले संस्कार देने वाली हमारी माँ ने घर परही पढ़ाई की थी |उनके संस्कारों का ही परिणाम है कि हम भाई-बहन अपने जीवन में संतुष्ट हैं |
आज सब कुछ होने पर सिर्फ ये अफ़सोस है कि अगर ये समझ पहले आ जाती तब शायद माँ को कुछ और समझ और समय दे पाती |हर रिश्ते को सम्हालना सिखाने वाली माँ का महत्व अब उनके न रहने पर ज्यादा समझ आता है |सबसे तो कहतीं हूँ माँ को अनदेखा न करना ,क्योंकि उनके न रहने पर ये अनदेखी अंतिम श्वांस तक टीस देगी ,पर खुद क्या करूँ ये खुद को ही नहीं समझा पाती हूं  |इसी अपराध-बोध में कुछ भी लिखने की हिम्मत नहीं हो रही थी ,फिर लगा शायद फिर एक गलती हो जायेगी |जानतीं हूँ माँ तो माँ होती हैं जहाँ से भी वो देख रही होंगी वो मुझे क्षमा कर देंगी ....बस एक ही कामना है जब-जब जन्म लूँ ईश्वर मुझे मेरी यही माँ ही दे जिसने मेरे ऐसे लड़खड़ा कर चलने वाले कदमों को दृढ़ता दी और अपने आंचल की सुरक्षित छाँव तले संजोये रखा !!!
               -निवेदिता


बुधवार, 4 मई 2011

कुछ अनसुलझे सवाल...........


                                                 ओ मेरे अजनबी मन !
                                                 आज आयी हूँ लेने ...
                                                 तुमसे कुछ अनसुलझे 
                                                 सवालों के जवाब ............

                                                क्यों रखा सिर्फ अपने ही पास 
                                                ये सब नकारने का अधिकार !
                                                तुम्हारे लिए भी सीमा-रेखा सी
                                                कुछ तो लकीर होनी चाहिए .......

                                                         तुम्हे अपनी सागर सी 
                                                         विशालता का है अभिमान 
                                                         क्यों भूल जाते हो .......कि तुम 
                                                         बने हो मुझ जैसी नन्हीं बूंदों से ......
                                                         सोचो क्या होगा तुम्हारा जब ,
                                                         हम नकार दे अस्तित्वहीन होने से .....
                                                         इस अभिमान को पोषित भी किया हमीं ने 
                                                        अपनी लघुता खो तुम्हे नि:स्सीम किया !
                                                        ज़रा सोचो तो कैसे बने महान ..............

                                                        तुम्हारी चमक-दमक के साये में ,
                                                        मेरी सादगी कुछ वीरान सी दिखती ........
                                                        पर क्या करूँ ....इस सफेदी से ही ....
                                                        लिए तुमने रंग उधार .........
                                                        आज आयी हूँ लेने वापस 
                                                        तुम्हारा ............मुझको ..................
                                                        नफ़रत करने का अधिकार..............
                                                                                                            
                                                       अब करते रहना अज-विलाप ................
                                                                                                       -निवेदिता 

मंगलवार, 3 मई 2011

मैं मांडवी ..........


           मैं ,मांडवी ,आज आप सबके साथ अपने कुछ पलों को बांटने आयी हूँ |क्या कहा ? आप मुझे नहीं पहचानते !पहचानना तो दूर जानते भी नहीं !यही मेरी उलझन है |मेरे नाम से तो अधिकतर लोग मुझे नहीं जानते |शायद नीवं की ईटों पर कोई ध्यान देता ही नहीं |वो दिखाई भी नहीं देती और ध्यानाकर्षण भी नहीं कर सकती,ये उनकी मजबूरी है और नियति भी |
            अब जिस परिचय से आप को तुरंत याद आ जाएगा वही बताती हूँ | मैं ,मर्यादा-पुरुषोत्तम अयोध्या के नरेश राम के छोटे भाई भरत की पत्नी मांडवी हूँ |अब तो आप सब को याद आ गयी होऊँगी |जिसका आप नाम तक न याद रख पाए ,क्या आप उसकी बातें सुनना चाहेंगे ?
            हम चारों बहनों -सीता दीदी ,मैं ,उर्मिला और श्रुतिकीर्ति -ने पूरा समय साथ बिताया ,एक ही से संस्कार भी पाए |शादी भी हमारी साथ-साथ हुई एक ही राजपरिवार में ,परन्तु किस्मत शायद हम चारों की सर्वथा अलग थी |  हमारी शादी का हेतु दीदी ही बनी थीं | स्वयंवर में सीता दीदी ने श्री राम को चुना |उनकी शादी के समय श्री राम के छोटे भाइयों से बाकी की हम तीनों बहनों की शादी हुई ,मेरी भरत से ,उर्मिला की लक्ष्मण से और श्रुतिकीर्ति की सबसे छोटे शत्रुघ्न से | हम प्रसन्नमना अयोध्या आये | शुरू का कुछ समय हमने तीनो माताओं के दुलार में बहुत अच्छा बिताया | दिक्कत तो तब आनी शुरू हुई जब मंथरा के बहकावे में आ कर मां कैकेयी ने भैया राम को वनवास दिया | सीता राम और लक्ष्मण के साथ वन को चली गयीं ,हम तीनों बहनों को माताओं का ध्यान रखने की आज्ञा दे कर अयोध्या में ही रोक गयीं |
            हमने अयोध्या में रुक कर कर्तव्यों का निर्वहन किया | भरत ने अयोध्या के  राज्यभार का  वहन भी किया पर सिर्फ राम के प्रतिनिधि के रूप में |भरत ने तो अयोध्या में ही वनवासी का सा जीवन बिताया ,जिसका मुझे मान है !भैय्या राम के वापस आ जाने पर ,उनको राज्य सौंप कर भरत मुक्तमना हो पाए थे ,अन्यथा माता कैकेयी के पाप कर्म का बोझ अपनी आत्मा पर वहन किये अशांत ही रहे |इस पूरे समय में शत्रुघ्न भरत की परछाईं सदृश बन गए थे ,जैसे लक्ष्मण वन में राम को अनुसरण करते रहे | 
           इन चारों भाइयों ने अपने अभिन्न सम्बन्धों के द्वारा हर मुश्किल समय का सामना किया | पर वास्तव में इन की एकता का कारण माता सुमित्रा की परिपक्व सोच थी | उन्होंने अपने दोनों पुत्रों -लक्ष्मण और शत्रुघ्न -को राम और भरत के साथ कर के उन्हें अकेलेपन से बचा लिया और संतुलन बनाए रखा |इतना ही नहीं अयोध्या में भी माता कौशल्या के साथ कवच सदृश रहीं |
            अगर घर में माता संतुलन बनाए रखे तो कितनी भी विषम परिस्थिति हो ,परिवार कभी भी बिखर नहीं सकता | कठिन परिस्थितियाँ सभी सदस्यों को हर स्तर पर और भी दृढ बना जाती हैं ........... 
                                                                                                                      -निवेदिता    

रविवार, 1 मई 2011

किन्नर-मन



                'किन्नर' ये सुनते ही सब की भाव-भंगिमा बदल जाती है  | एक विद्रूप भरी स्मित से चेहरा भर जाता है | कभी हम में से कोई भी मानवीय हो कर इनके बारे में क्यों नहीं सोच पाता ? जिस नाम से संबोधित करते हैं  , अगर हम सिर्फ़ उस शब्द को ही ध्यान दें तो हमारे मनोभाव पता चल जायेंगे !
'किन्नर'देखा क्या कहा -किन को नर कहा | हमने उन्हें नर (इस पुरुषवादी समाज की अवधारणा के अनुसार) अर्थात इंसान मानने से ही इनकार कर दिया | जबकि अगर देखा जायेतो इन किन्नर नामधारी ने इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है | हमारी याददाश्त इतनी भी खराब भी नहीं हैं कि 'महाभारत' के'शिखंडी'को भूला जायें जिसका सहारा ले कर अर्जुन ने अमर माने जाने वाले युग पुरुष 'भीष्म' को धराशायी कर दिया था |अगर भीष्म जीवित रहते तब क्या कोई भी पांडवों की विजय की कल्पना भी कर सकता था !संभवत:तथाकथित कलियुग भी समय से पूर्व आने को मजबूर हो जाता ......| अज्ञातवास के समय जब पांडव छुपने का प्रयास कर रहे थे तब सर्वमान्य वीर धनुर्धर अर्जुन को 'वृहन्नला' बनना पड़ा था ! ये तो अवसरवादिता ही हुई कि अपने स्वार्थ के लिए हम इस वर्ग को मान दें अन्यथा उपहास करें और स्वयं को श्रेष्ठ माने | मैं भी इस सच्चाई से खुद को अलग नहीं कर पाती हूँ कि अब इस वर्ग का बहुत ही विकृत रूप सामने है | कहीं सड़क पर इन की टोली दिख जाती है तो मैं भी रास्ता बदलना चाहती हूँ परन्तु साथ ही बेहद विचलित भी हो जाती हूँ जब देखती हूँ वो तलाश रहें हैं दूसरों की खुशियाँ जिससे उन को भी जीवनयापन के लिए अर्थार्जन हो जाये |
                     मुझे भी कष्ट होता है जिस तरह ये वसूली करते हैं दबंगई से | किसी भी विवाह-स्थल पर इनलोगों के आने की भनक भर लग जाये माहौल में एक तरह की दहशत सी तैर जाती है | मैं खुद भी प्रत्यक्षदर्शी हूँ , इस पीड़ा का | एक शादी में शामिल हुए थे हम और जिसे तारों की छाँव कहेंगे उस समय ये सब आ गए और अपना तमाशा शुरू कर दिया  .........मेज़बान ने कहा की अगर पहले पता होता तो इस दहेज़ का भी इंतज़ाम कर लेते क्योंकि मांग पूरे इक्कीस हज़ार की थी !खैर वो मामला तो मोलभाव कर के निपट गया | जाते-जाते उन सब ने कहा कि कभी समय हो तो हमारे इस व्यवहार का कारण सोचियेगा  | मैं उस वर्ग की तरफ़दारी नहीं कर रही पर इसके मूल में कहीं न कहीं एक कारण उनकी उपेक्षा भी है | हम सबकी शगुन मनाने वाले इस वर्ग की तकलीफों को अगर सहिष्णु हो कर ,समझ कर दूर करने का प्रयास किया जाये और मन से इनको भी इंसान समझे तब शायद इनको देख कर रास्ता बदलने को मन नहीं आतुर होगा और इनका आक्रोश इस तरह नहीं बिखरेगा क्यों कि ये भी प्रकॄति के सताये हुए ही हैं...................